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प्रेमाश्रम


गयी, पर आपने कभी इशारे से भी उनकी अवहेलना नहीं की। मैं ऐसी घास-पात को कदापि न जमने दूंगा, जिससे जीवन के पौधे का ह्रास हो। लेकिन वह प्रथा अव कालविरुद्ध हो गयी। यह जीवन-संग्राम का युग है, और यदि हमको संसार में जीवित रहना है तो हमे विवश हो कर नवीन और पुरुषोचित्त सिद्धान्तो के अनुकूल बनना पड़ेगा।

ज्ञानशंकर ने नयी सभ्यता की जिन विशेषताओं को उल्लेख किया, उनका वह स्वयं व्यवहार न कर सकते थे। केवल उनमें मानसिक भक्ति रखते थे। प्राचीन प्रथा को मिटाना उनकी सामर्थ्य से परे था। निन्दा और परिहास से सिद्धान्त में चाहे न डरते हो पर प्रत्यक्ष उसकी अवज्ञा न कर सकते थे। आतिथ्य-सत्कार और कुटुम्बपालन को मन में चाहे अपव्यय समझते हो, पर उनके मित्र तथा सम्बन्धियो को कभी उनकी शिकायत नहीं हुई। किन्तु साधारणत उनको सम्भाषण विवाद का रूप धारण कर लिया करता था, इसलिए वह आवेश में ऐसे सिद्धान्तों का समर्थन करने लगते थे, जिनका अनुकरण करने का उन्हें कभी साहस न होता। लाला प्रभाशंकर समझ गयें कि इसके सामने मेरी कुछ न चलेगी। इसके मन में जो बात ठन गयी है उसे पूरा करके छोड़ेगा। जिसे कुल-मर्यादा की परवाह नहीं उससे उदारता की आशा रखना व्यर्थ है। दुखित भाव से बोले, बेटा, मैं पुराने जमाने का आदमी हूँ, तुम्हारी इन नयी-नयी बातों को नहीं समझता। हम तो अपनी मान-मर्यादा को प्राणों से भी प्रिय समझते थे। यदि घर में एक दूसरे का सिर काट लेते तो भी अलग होने का नाम नहीं लेते। लेकिन तुम्हारी इसमें हानि हो रही हैं तो जो इच्छा हो करो, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। हाँ इतना फिर भी कहूँगा कि अभी दो-चार दिन रुक जाओ। जहाँ इतने दिनो तकलीफ उठायी है, दो-चार दिन और उठा लो। आज लल्लू के मुकदमे का फैसला सुनाया जायगा। हम लोगों के हाथ-पैर फूले हुए हैं, दाना-पानी हराम हो रहा है, जरा यह आग ही हो जाने दो।

ज्ञानशंकर मे आत्मश्लाघा की मात्रा अधिक थी। उन्हें स्वभावत तुच्छता से घृणा थी। पर यही ममत्व अपना गौरव और सम्मान बढ़ाने के लिए उन्हें कभी-कभी धूर्तता की प्रेरणा किया करता था, विशेषत जब उसके प्रकट होने की कोई सम्भावना न होती थी। सहानुभूति पूर्ण भाव से बोले, इस विषय में आप निश्चिन्त रहे, दयाशंकर केवल मुक्त ही नहीं, बरी हो जायेगे। उधर के गवाह जैसे बिगड़े है, वह आपको मालूम ही है; तिस पर भी सबको शंका थी कि ज्वालासिंह जरूर दबाव में आ जायेंगे। ऐसी दशा में मुझे कैसे चैन आ सकता था। मैं आज प्राप्त काल उनके पास गया और परमात्मा ने मेरी लाज रख ली। यह कोई कहने की बात नहीं है, पर मैंने अपने मामने फैसला लिखा कर पढ़ लिया, तब उनका पिंड छोड़ा। पहले तो महाशय देर तक बंगले झाँझते रहे, पर मैंने ऐसा फटकारा कि अंत में लज्जित हो कर उन्हें फैमला लिखना ही पड़ा। मैंने कहा, महोदय, आपने मेरी ही बदौलत बी० ए० की डिगरी पायी हैं, इसे मत भूलिए। यदि आप मेरा इतना भी लिहाज न करे तो मैं समझूँगा कि एहसान उठ गया।