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प्रेमाश्रम


सध्या हो गयी हैं। दिन भर के थके-भौदे वैल खेत से,आ गये है। घरो से धूंएँ के काले बादल उठने लगे। लखनपुर में आज परगने के हाकिम की परताल थीं। गाँव के नेतागण दिन भर उनके घोडे के पीछे-पीछे दौडते रहे थे। इस समय वह अलाव के पास बैठे हुए नारियल पी रहे है और हाकिमो के चरित्र पर अपना-अपना मत प्रकट कर रहे है। लखनपुर बनारस नगर से बारह मील पर उत्तर की ओर एक बडा गाँव हैं। यहाँ अधिकाश कुर्मी और ठाकुरो की बस्ती है दो-चार घर अन्य जातियों के भी है।

मनोहर ने कहा, भाई हाकिम तो अँगरेज, अगर यह न होते तो इस देशवाले हाकिम हम लोगो को पीस कर पी जाते।

दुखरन भगत ने इस कथन का समर्थन किया- जैसा उनका अकबाल है, वैसा ही नारायण ने स्वभाव भी दिया है। न्याय करना यहीं जानते है, दूध का दूध और पानी का पानी, घूस-रिसवत से कुछ मतलब नहीं। आज छोटै साहब को देख, मुँहअँधेरे घोड़े पर सवार हो गये और दिन भर परताल की। तहसीलदार, पैसकार, कानूनगोय एक भी उनके साथ नहीं पहुँचता था। सुक्खू कुर्मी ने कहा—यह लोग अँगरेजो की क्या बराबरी करेंगे ? बस खाली गाली देना और इजलास पर गरजना जानते हैं। घर से तो निकलते ही नहीं। जो कुछ चपरासी या पटवारी ने कह दिया, वहीं मान गये। दिन भर पडे-पडे आलसी हो जाते हैं। मनोहर--सुनते हैं अँगरेज लोग भी नहीं खाते। सुक्खू—भी क्यों नहीं खाते ? बिना घी-दूध के इतना बुता कहाँ से होगा। वह मसक्कत करते हैं, इसी से उन्हें घी-दूध पच जाता है। हमारे देशी हाकिम खाते तो बहुत हैं पर खाट पर पड़े रहते है। इसी से उनका पेट बढ़ जाता है। दुखरन भगत तहसीलदार साहब तो ऐसे मालूम होते है जैसे कोल्हू। अभी पहले आये थे तो कैसे दुबले-पतले थे, लेकिन दो ही साल में उन्हें न जाने कहाँ की मोटाई लग गयी। सुक्खू रिसवत का पैसा देह फुला देता है। मनोहर---यह कहने की बात है। तहसीलदार एक पैसा भी नहीं लेते। सुक्खू---बिना हराम की कौडी खाये देह फूल ही नहीं सकती।