कभी-कभी बातें करती, कहानियाँ सुनाती; किन्तु गर्भिणी होते ही उसका व्यवहार कठोर हो गया। प्रसव-काल ज्यों-ज्यों निकट आता था, उसकी कठोरता बढ़ती ही जाती थी। जिस दिन उसकी गोद में एक चाँद-से बच्चे का आगमन हुआ, सत्यप्रकाश खूब उछला-कूदा और सौर-गृह में दौड़ा हुआ बच्चे को देखने गया। बच्चा देवप्रिया की गोद में सो रहा था। सत्यप्रकाश ने बड़ी उत्सुकता से बच्चे को विमाता की गोद से उठाना चाहा। सहसा देवप्रिया ने सरोष-स्वर में कहा—खबरदार, इसे मत छूना, नहीं तो कान पकड़कर उखाड़ लूँगी।
बालक उलटे पाँव लौट आया और कोठे की छत पर जाकर खूब रोया। कितना सुन्दर बच्चा है! मैं उसे गोद में लेकर बैठता, तो कैसा मज़ा आता! मैं उसे गिराता थोड़े ही, फिर इन्होंने मुझे झिड़क क्यों दिया? भोला बालक क्या जानता था, कि इस झिड़की का कारण माता की सावधानी नहीं, कुछ और है।
शिशु का नाम ज्ञानप्रकाश रखा गया था। एक दिन वह सो रहा था। देवप्रिया स्नानागार में थी। सत्यप्रकाश चुपके से आया और बच्चे का ओढ़ना हटाकर उसे अनुरागमय नेत्रों से देखने लगा। उसका जी कितना चाहा, कि उसे गोद में लेकर प्यार करूँ; पर डर के मारे उसने उसे उठाया नहीं; केवल उसके कपोलों को चूमने लगा। इतने में देवप्रिया निकल आई। सत्यप्रकाश को बच्चे चूमते देखकर आग हो गई। दूर ही से डाँटा—'हट जा वहाँ से!'
सत्यप्रकाश दीन नेत्रों से माता को देखता हुआ बाहर निकल आया।
संध्या-समय उसके पिता ने पूछा—तुम लल्ला को क्यों रुलाया करते हो?
सत्य॰—मैं तो उसे कभी नहीं रुलाता। अम्मा खेलाने को नहीं देतीं।
देव॰—झूठ बोलते हो, आज तुमने बच्चे को चुटकी काटी?
सत्य॰—जी नहीं, मैं तो उसकी मुच्छियाँ ले रहा था।
देव॰—झूठ बोलता है!