पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११०
प्रेम-द्वादशी


ज्ञान॰—जी, हाँ।

देवप्रिया—उन्हीं को क्यों नहीं बुलाते?

ज्ञान॰—उन्हें कौन मुँह लेकर बुलाऊँ? आप लोगों ने तो पहले ही मेरे मुँह में कालिख लगा दी है। ऐसा देव-पुरुष आप लोगों के कारण विदेश में ठोकर खा रहा है, और मैं इतना निर्लज्ज हो जाऊँ कि—

देवप्रिया—अच्छा चुप रह, नहीं ब्याह करना है, न कर, जले पर नमक मत छिड़क! माता-पिता का धर्म है; इसलिए कहती हूँ, नहीं तो यहाँ ठेंगे को परवा नहीं है। तू चाहे ब्याह कर, चाहे क्वाँरा रह; पर मेरी आँखों से दूर हो जा।

ज्ञान॰—क्या मेरी सूरत से भी घृणा हो गई?

देवप्रिया—जब तू हमारे कहने ही में नहीं, तो जहाँ चाहे रह। हम भी समझ लेंगे, कि भगवान् ने लड़का ही नहीं दिया।

देव॰—क्यों व्यर्थ ऐसे कटु वचन बोलती हो?

ज्ञान॰—अगर आप लोगों की यह इच्छा है, तो यही होगा।

देवप्रकाश ने देखा, कि बात का बतंगड़ हुआ चाहता है, तो ज्ञानप्रकाश को इशारे से टाल दिया, और पत्नी के क्रोध को शांत करने की चेष्टा करने लगे; मगर देवप्रिया फूट-फूटकर रो रही थी, बार-बार कहती थी—मैं इसकी सूरत न देखूँगी। अन्त को देवप्रकाश ने चिढ़कर कहा—तो तुम्हीं ने तो कटु वचन कहकर उसे उत्तेजित कर दिया।

देवप्रिया—यह सब विष उसी चांडाल ने बोया है, जो यहाँ से सात समुद्र पार बैठा हुआ मुझे मिट्टी में मिलाने का उद्योग कर रहा है। मेरे बेटे को मुझसे छीनने ही के लिए उसने यह प्रेम का स्वाँग रचा है। मैं उसकी नस-नस पहचानती हूँ। उसका यह मंत्र मेरी जान लेकर छोड़ेगा; नहीं तो मेरा ज्ञानू, जिसने कभी मेरी बात का जवाब नहीं दिया, यों मुझे न जलाता।

देव॰—अरे, तो क्या वह विवाह ही न करेगा! अभी गुस्से में अनाप-शनाप बक गया है। ज़रा शांत हो जायगा, तो मैं समझाकर राजी कर दूँगा।