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प्रेम-द्वादशी

भी कोई दिन आवेगा, कि मैं अपनी बहू का मुख-चन्द्र देखूँगी, बालकों को गोद में खिलाऊँगी? वह भी कोई दिन होगा, कि मेरे घर में भी आनन्दोत्सव के मधुर गान की तानें उठेंगी? रात-दिन ये ही बातें सोचते-सोचते देवप्रिया की दशा उन्मादिनी की सी हो गई। आप-ही-आप सत्यप्रकाश को कोसने लगी—वही मेरे प्राणों का घातक है! तल्लीनता उन्माद का प्रधान गुण है। तल्लीनता अत्यन्त रचनाशील होती है। वह आकाश में देवताओं के विमान उड़ाने लगती है। अगर भोजन में नमक तेज हो गया, तो यह शत्रु ने कोई रोड़ा रख दिया होगा। देवप्रिया को अब कभी-कभी धोखा हो जाता, कि सत्यप्रकाश घर में आ गया है, वह मुझे मारना चाहता है, ज्ञानप्रकाश को विष खिलाये देता है। एक दिन उसने सत्यप्रकाश के नाम एक पत्र लिखा, और उसमें जितना कोसते बना, कोसा—तू मेरे प्राणों का बैरी है, मेरे कुल का घातक है, हत्यारा है। वह कौन दिन आवेगा, कि मिट्टी उठेगी। तूने मेरे लड़के पर वशीकरण-मंत्र चला दिया है। दूसरे दिन फिर ऐसा ही एक पत्र लिखा, यहाँ तक कि यह उसका नित्य का कर्म हो गया। जब तक एक चिट्ठी में सत्यप्रकाश को गालियाँ न दे लेती, उसे चैन ही न आता! इन पत्रों को वह कहारिन के हाथ डाकघर भिजवा दिया करती थी।

(१०)

ज्ञानप्रकाश का अध्यापक होना सत्यप्रकाश के लिए घातक हो गया। परदेश में उसे यही संतोष हुआ था, कि मैं संसार में निराधार नहीं हूँ। अब वह अवलम्ब जाता रहा। ज्ञानप्रकाश ने ज़ोर देकर लिखा—अब आप मेरे लिए कोई कष्ट न उठावें। मुझे अपनी गुज़र करने के लिए काफ़ी से ज्यादा मिलने लगा है।

यद्यपि सत्यप्रकाश की दूकान खूब चलती थी; लेकिन कलकत्ते-जैसे शहर में एक छोटे-से दुकानदार का जीवन बहुत सुखी नहीं होता। साठ-सत्तर रुपए की मासिक आमदनी होती ही क्या है। अब तक वह जो कुछ बचाता था, वह वास्तव में बचत न थी, बल्कि त्याग था। एक वक़्त रूखा-सूखा खाकर, एक तंग सीलन की कोठरी में रहकर बीस-