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प्रेम-द्वादशी

यह दशा देखकर ज्ञानप्रकाश, जो अब तक अपने कंठ के आवेग को रोके हुए था, रो पड़ा। सत्यप्रकाश ने लालटेन जलाई। घर क्या था, भूत का डेरा था। सत्यप्रकाश ने जल्दी से एक कुरता गले में डाल लिया। ज्ञानप्रकाश भाई का जर्जर शरीर, पीला मुख, बुझी हुई आँखें देखता और रोता था।

सत्यप्रकाश ने कहा—मैं आज कल बीमार हूँ।

ज्ञानप्रकाश—यह तो देख ही रहा हूँ।

सत्य॰—तुमने अपने आने की सूचना भी न दी, मकान का पता कैसे चला?

ज्ञान॰—सूचना तो दी थी, आपको पत्र न मिला होगा।

सत्य॰—अच्छा, हाँ, दी होगी, पत्र दूकान में डाला गया होगा। मैं इधर कई दिनों से दूकान नहीं गया। घर पर सब कुशल है?

ज्ञान॰—माताजी का देहान्त हो गया।

सत्य॰—अरे! क्या बीमार थीं?

ज्ञान॰—जी नहीं। मालूम नहीं क्या खा लिया। इधर उन्हें उन्माद-सा हो गया था। पिताजी ने कुछ कटु वचन कहे थे, शायद इसी पर कुछ खा लिया।

सत्य॰—पिताजी तो कुशल से हैं?

ज्ञान॰—हाँ अभी मरे नहीं हैं।

सत्य॰—अरे! क्या बहुत बीमार हैं?

ज्ञान॰—माता ने विष खा लिया, तो वह उनका मुँह खोलकर दवा पिला रहे थे। माताजी ने ज़ोर से उनकी दो उँगलियाँ काट लीं। वही विष उनके शरीर में पहुँच गया। तब से सारा शरीर सूज आया है। अस्पताल में पड़े हुए हैं, किसी को देखते हैं, तो काटने दौड़ते हैं। बचने की आशा नहीं है।

सत्य॰—तब तो घर ही चौपट हो गया!

ज्ञान॰—ऐसे घर को अब से बहुत पहले चौपट हो जाना चाहिये था। तीसरे दिन दोनो भाई प्रातःकाल कलकत्ते से विदा होकर चल दिये।