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प्रेम-द्वादशी

( ४ )

इसके कुछ दिन बाद हम इलाहाबाद चले आये। बाबूजी ने पहले ही एक-दो मंजिला मकान ले रखा था-सब तरह से सजा-सजाया । हमारे यह पाँच नौकर ,-दो स्त्रियाँ, दो पुरुष और एक महराज । अब मैं घर के कुल काम-काज ने छुट्टी पा गई । कभी जी घबगता, कोई उपन्यास लेकर बढ़ने लगती।

यहाँ फूल और पीतन के वर्नन बहुत कम थे | चीनी की रक वियः और प्याले में प्रान्तमारियों में मजे रखे थे। भजन मेज पर अनाया! बाबूजी बड़े चाव में भोजन करने । ममें पद्दन्ने कुछ शर्म 'अन श्री : लेकिन धीरे-धीरे में भी मदद पर भोजन करने लगी! हमारे पास एक मुन्दर टमटम भी थी । अब हम पैदन्न बिन्नकल न चलने । किमी से मिलने दम पग भी जान ईना. तो गाड़ी तैयार कराई जाती । बाबूजी कहते--यही बैशन है।

बबृजी की आमदनी अभी बहुत कम थी। मनी-भाँति खर्च भी न चलता था । कभी-कभी मैं उन्हें चिन्त कुल देखती तो समझती कि जब आप इतनी कम है. ने व्यय इतना क्यों बढ़ा रखा है ? कोई छोटा- सा मकान ले लो। दो नौकरों से भी काम चल सकता है । लेकिन बाबू जी मेरी बातों पर हैन देते और कहते-मैं अपनी दरिद्रता का द्विदोरा अपने आप क्यों पीटू ? दरिद्रता प्रकट करना दरिद्र होने से अधिक दुःग्व- दायी होता है। भृन्न जाओ कि हम लोग निधन हैं, फिर लक्ष्मी हमारे पास श्राप दौड़ी श्रावेगी । खर्च बढ़ना, अवश्यकताओं का अधिक होना ही द्रव्योपार्जन की पहनी नदी है। इसमे हमारी गुत शक्तियाँ विक्रमित हो जाती हैं। और हम उन कष्टों को झेलते हुए आगे पग धरने के योग्य होते है । संतप दरिद्रता का इमरा नाम है ।

अस्तु,हम लोगों का खर्च दिन-दिन बढ़ता ही जाता था । हम लोग सप्ताह में तीन बार थियेटर ज़रूर देखने जाते । मताह में एक बार मित्रों को भोज अवश्य ही दिया जाता । अब मुझे सूझने लगा, कि जीवन का लक्ष्य सुख-भोग ही है। ईश्वर को हमारी उपासना की इच्छा नहीं।