सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/१३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३०
प्रेम-द्वादशी


कैलास ने गरदन छुड़ाते हुए कहा—क्या मेरे घाव पर नमक छिड़कने, मेरी लाश को पैरों से ठुकराने आये हो?

नईम ने उसकी गरदन को और ज़ोर से दबाकर कहा—और क्या, मुहब्बत के यही तो मज़े हैं!

कैलास—मुझसे दिल्लगी न करो। मरा बैठा हूँ, मार बैठूँगा।

नईम की आँखें सजल हो गईं। बोला—आह ज़ालिम, मैं तेरी ज़बान से यही कटु वाक्य सुनने के लिए तो विकल हो रहा था। जितना चाहे कोसो, खूब गालियाँ दो, मुझे इसमें मधुर-संगीत का आनन्द आ रहा है।

कैलास—और, अभी जब अदालत का कुर्क-अमीन मेरा घर-बार नीलाम करने आवेगा, तो क्या होगा? बोलो, अपनी जान बचाकर तो अलग हो गये।

नईम—हम दोनों मिलकर खूब तालियाँ बजावेंगे, और उसे बन्दर की तरह नचावेंगे।

कैलास—तुम अब पिटोगे मेरे हाथों से! ज़ालिम, तुझे मेरे बच्चों पर भी दया न आई?

नईम—तुम भी तो चले मुझी से ज़ोर आज़माने। कोई समय था, जब बाज़ी तुम्हारे हाथ रहती थी, अब मेरी बारी है। तुमने मौका-महल तो देखा नहीं, मुझी पर पिल पड़े।

कैलास—सरासर सत्य की उपेक्षा करना मेरे सिद्धान्त के विरुद्ध था।

नईम—और सत्य का गला घोटना मेरे सिद्धान्त के अनुकूल।

कैलास—अभी एक पूरा परिवार तुम्हारे गले मढ़ दूँगा, तो अपनी क़िस्मत को रोओगे। देखने में तुम्हारा आधा भी नहीं हूँ; लेकिन सन्तानोत्पत्ति में तुम-जैसे तीन पर भारी हूँ। पूरे सात हैं, कम न बेश।

नईम—अच्छा लाओ, कुछ खिलाते-पिलाते हो, या तक़दीर का मरसिया ही गाये जाओगे? तुम्हारे सिर की क़सम, बहुत भूका हूँ। घर से बिना खाये ही चल पड़ा।