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प्रेम-द्वादशी

बुद्ध ने भेड़ें ईश्वर को सौंपी। लड़के छोटे थे । स्त्री अकेली क्या- क्या करेगी। जाकर द्वारों पर खड़ा होता, और मुँह छिपाये हुए कहता : गाय की बाछी दियो बनवास । भिक्षा तो मिल जाती ; किंतु भिक्षा के साथ दो-चार कठोर, अपमान-जनक शब्द भी सुनने पड़ते । दिन को जो कुछ पाता, वही शाम को किसी पेड़ के नीचे बनाकर खा लेता, और वहीं पर रहता । कष्ट की तो उसे परवा न थी, भेड़ों के साथ दिन भर चलता ही था, पेड़ के नीचे सोता ही था, भोजन भी इससे कुछ ही अच्छा मिलता था ; पर लज्जा थी भिक्षा माँगने की । विशेष करके जब कोई कर्कशा यह व्यंग कर देती थी, कि रोटी कमाने का अच्छा ढंग निकाला है, तो उसे हार्दिक वेदना होती थी ; पर करे क्या ?

दो महीने के बाद वह घर लौटा । बाल बढ़े हुए थे । दुर्बल इतना, मानो साठ वर्ष का बूढ़ा हो । तीर्थ-यात्रा के लिए रुपयों का प्रबंध करना था। गड़रियों को कौन महानन कर्ज़ दे ? भेड़ों का भरोसा क्या? कभी-कभी रोग फैलता है, तो रात-भर में दल-का-दल साफ हो जाता है। उस पर जेठ का महीना, जब भेड़ों से कोई आमदनी होने की आशा नहीं । एक तेली राज़ी भी हुआ, तो दो आना रुपया व्याज पर । आठ महीने में व्याज मूल के बराबर हो जायगा । यहाँ कर्ज़ लेने की हिम्मत न पड़ी, इधर दो महीनों में कितनी ही भेड़ें चोरी चली गई थीं। लड़के चराने ले जाते थे । दूसरे गाँववाले चुपके से एक-दो भेड़ें किसी खेत या घर में छिपा देते, और पीछे मारकर खा जाते । लड़के बेचारे एक तो पकड़ न सकते और जो देख भी लेते, तो लड़ें क्योंकर । सारा गाँव एक हो जाता था। एक महीने में तो भेड़ें श्राधी भी न रहेंगी। बड़ी विकट समस्या थी । विवश होकर बुद्धू ने एक बूचड़ को बुलाया, और सब भेड़ें उसके हाथ बेच डाली । पाच सौ रुपए हाथ लगे। उसमें से दो सौ रुपए लेकर वह तीर्थ यात्रा करने गया । शेष रुपए ब्रह्मभोज आदि के लिए छोड़ गया।

बुद्धू के जाने पर उसके घर में दो बार सेंध लगी ; पर यह कुंशल हुई, कि जगहग हो जाने के कारण रुपए बच गये ।