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प्रेम-द्वादशी

थी, कि कब दोपहर हुई, कब तीसरा पहर, कब शाम। घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता—खाना तैयार है। यहाँ से जवाब मिलता—चलो, आते हैं; दस्तरख्वान बिछाओ। यहाँ तक कि बावरची विवश होकर क़मरे ही में खाना रख जाता था, और दोनो मित्र दोनो काम साथ-साथ करते थे। मिर्ज़ा सज्जादअली के घर में कोई बड़ा-बूढ़ा न था; इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाज़ियाँ होती थीं; मगर यह बात न थी, कि मिर्ज़ा के घर के और लोग उनके इस व्यवहार से खुश हों। घरवालों का तो कहना ही क्या, महल्लेवाले, घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेष-पूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे—बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। खुदा न करे, किसी को इसकी चाट पड़े। आदमी दीन, दुनिया किसी के काम का नहीं रहता, न घर का न घाट का। बुरा रोग है। यहाँ तक कि मिर्ज़ा की बेगम साहब को इससे इतना द्वेष था, कि अवसर खोज-खोजकर पति को लताड़ती थीं; पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था। वह सोती ही रहती थीं, तब तक उधर बाज़ी बिछ जाती थी, और रात को जब सो जाती थीं, तब कहीं मिर्ज़ाजी, भीतर आते थे। हाँ, नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थीं—क्या पान माँगे हैं? कह दो, आकर ले जायँ। खाने की भी फ़ुरसत नहीं है? ले जाकर खाना सिर पर पटक दो, खायँ, चाहे कुत्ते को खिलावें; पर रूबरू वह भी कुछ न कर सकती थीं। उनको अपने पति से उतना मलाल न था, जितना मीरसाहब से। उन्होंने उनका नाम मीर बिगाड़ू रख छोड़ा था। शायद मिर्ज़ाजी अपनी सफाई देने के लिए सारा इल्ज़ाम मीर साहब ही के सिर थोप देते थे।

एक दिन बेगम साहबा के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने लौंडी से कहा, जाकर मिर्ज़ा साहब को बुला ला। किसी हकीम के यहाँ से दवा लावें। दौड़, जल्दी कर। लौंडी गई, तो मिर्जाजी ने कहा—चल, अभी आते हैं। बेगम साहब का मिज़ाज गरम था। इतनी ताब कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो, और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख हो गया। लौंडी ने कहा—जाकर कह, अभी चलिये, नहीं तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जायँगी। मिर्ज़ाजी बड़ी दिलचस्प बाज़ी खेल रहे