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प्रेम-द्वादशी


मिर्ज़ा—बराबर के आदमी हैं, उम्र में, दर्जे में; मुझसे दो अंगुल ऊँचे। मुलाहिजा करना ही पड़ता है।

बेगम—तो मैं ही दुतकारे देती हूँ। नाराज़ हो जायँगे, हो जायँ। कौन किसी की रोटियाँ चला देता है। रानी रूठेगी, अपना सुहाग लेंगी। हिरिया, जा, बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना मियाँ अब न खेलेंगे, आप तशरीफ़ ले जाइये।

मिर्ज़ा—हाँ हाँ, कहीं ऐसा ग़ज़ब भी न करना! ज़लील करना चाहती हो क्या! ठहर हिरिया, कहाँ जाती है?

बेगम—जाने क्यों नहीं देते? मेरा ही खून पिये, जो उसे रोके। अच्छा, उसे रोका; मुझे रोको, तो जानूँ!

यह कहकर बेगम साहब झल्लाई हुई दीवानखाने के तरफ़ चलीं। मिर्ज़ा बेचारे का रंग उड़ गया। बीबी की मिन्नतें करने लगे—खुदा के लिए, तुम्हें हज़रत हुसेन की कसम। मेरी ही मैयत देखे, जो उधर जाय; लेकिन बेग़म ने एक न मानी। दीवानखाने के द्वार तक गई; पर एकाएक पर पुरुष के सामने जाते हुए पाँव बँध-से गये। भीतर झाँका। संयोग से कमरा खाली था। मीर साहब ने दो-एक मुहरे इधर-उधर कर दिये थे, और अपनी सफाई जताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, बेग़म ने अन्दर पहुँचकर बाज़ी उलट दी; मुहरें कुछ तख्त के नीचे फेंक दिये, कुछ बाहर; और किवाड़े अन्दर से बन्द करके कुंडी लगा दी। मीर साहब दरवाज़े पर तो थे ही, मुहरें बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की झनक भी कान में पड़ी। फिर दरवाज़ा बन्द हुआ, तो समझ गये, बेगम साहबा बिगड़ गईं। चुपके से घर की राह ली!

मिर्जा ने कहा—तुमने ग़ज़ब किया!

बेग़म—अब मीर साहब इधर आये, तो खड़े-खड़े निकलवा दूँगी। इतनी लौ खुदा से लगाते, तो क्या ग़रीब हो जाते! आप तो शतरंज खेलें, और मैं यहाँ चूल्हे-चक्की की फिक्र में सिर खपाऊँ! ले जाते हो हकीम साहब के यहाँ, कि अब भी ताम्मुल है?

मिर्ज़ा घर से निकले, तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के