पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/१५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५३
शतरंज के खिलाड़ी

रात-भर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शांत हो जाता था। प्रातःकाल दोनो मित्र दीवानखाने में आ पहुँचते थे।

एक दिन दोनो मित्र बैठे शतरंज की दलदल में गोते खा रहे थे, कि इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफ़सर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ पहुँचा। मीरसाहब के होश उड़ गये! यह क्या बला सिर पर आई। यह तलबी किस लिए हुई! अब खैरियत नहीं नज़र आती। घर के दरवाजे बन्द कर लिये। नौकरों से बोले—कह दो, घर में नहीं हैं।

सवार—घर में नहीं, तो कहाँ हैं?

नौकर—यह मैं नहीं जानता। क्या काम है!

सवार–काम तुझे क्या बतलाऊँ? हुजूर में तलबी है—शायद फ़ौज़ के लिए कुछ सिपाही माँगे गये हैं। जागीरदार हैं कि दिल्लगी! मोरचे पर जाना पड़ेगा, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायगा!

नौकर—अच्छा, तो जाइये, कह दिया जायगा।

सवार—कहने की बात नहीं है। मैं कल खुद आऊँगा! साथ ले जाने का हुक्म हुआ है।

सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा काँप उठी। मिर्ज़ाजी से बोले—कहिये जनाब, अब क्या होगा?

मिर्ज़ा—बड़ी मुसीबत है, कहीं मेरी भी तलबी न हो।

मीर—कम्बख्त कल फिर आने को कह गया है!

मिर्ज़ा—आफ़त है और क्या! कहीं मोरचे पर जाना पड़ा, तो बेमौत मरे।

मीर—बस, यह एक तदबीर है, कि घर पर मिलो ही नहीं। कल से गोमती पर कहीं वीराने में नक्शा जमे। वहाँ किसे खबर होगी? हज़रत आकर आप लौट जायँगे।

मिर्ज़ा—वल्लाह, आपको खूब सूझी! इसके सिवा और कोई तदबीर ही नहीं है।

इधर मीर साहब की बेग़म उस सवार से कह रही थीं—तुमने खूब धता बताई। उसने जवाब दिया—ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर