पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/१५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५६
प्रेम-द्वादशी

और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजतीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी!

मिर्ज़ा ने कहा—हुजूर नवाब साहब को ज़ालिमों ने कैद कर लिया है।

मीर—होगा, यह लीजिये शह!

मिर्ज़ा—जनाब ज़रा ठहरिये। इस वक्त इधर तबीयत नहीं लगती।

बेचारे नवाब इस वक्त खून के आँसू रो रहे होंगे।

मीर—रोया ही चाहें। यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा—यह किश्त!

मिर्ज़ा—किसी के दिन बराबर नहीं जाते। कितनी दर्दनाक हालत है!

मीर—हाँ, सो तो है ही—यह लो, फिर किश्त! बस, अब की किश्त में मात है, बच नहीं सकते।

मिर्ज़ा—खुदा की कसम, आप बड़े बेदर्द हैं। इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दुःख नहीं होता। हाय ग़रीब वाजिद अली शाह!

मीर—पहले अपने बादशाह को तो बचाइये, फिर नवाब साहब का मातम कीजियेगा। यह किश्त और मात। लाना हाथ।

बादशाह को लिये हुये सेना सामने से निकल गई। उनके जाते ही मिर्ज़ा ने फिर बाजी बिछा दी। हार की चोट बुरी होती है। मीर ने कहा—आइये, नवाब साहब के मातम में एक मरसिया कह डालें; लेकिन मिर्ज़ाजी की राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी, वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो रहे थे।

(४)

शाम हो गई खँडहर में चमगादड़ों ने चीखना शुरू किया। अबाबीले आ-आकर अपने-अपने घोसलों में चिमटी; पर दोनो खिलाड़ी डटे हुए थे, मानो दो खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हों। मिर्ज़ाजी तीन बाजियाँ लगतार हार चुके थे; इस चौथी बाजी का रङ्ग अच्छा न था। वह बार-बार जीतने का दृढ़ निश्चय करके सँभलकर