पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/१५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५८
प्रेम-द्वादशी


मिर्ज़ा—क्यों न रखियेगा? आपको रखना ही होगा।

तकरार बढ़ने लगी। दोनो अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे। न यह दबता था, न वह! अप्रासंगिक बातें होने लगीं। मिर्ज़ा बोले—किसी ने खानदान में शतरंज खेली होती, तब तो इसके क़ायदे जानते। वे तो हमेशा घास छीला किये, आप शतरंज क्या खेलियेगा! रियासत और ही चीज़ है। जागीर मिल जाने ही से कोई रईस नहीं हो जाता।

मीर—क्या! घास आपके अब्बाजान छीलते होंगे! यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आते हैं।

मिर्ज़ा—अजी जाइये भी, ग़ाज़िउद्दीन हैदर के यहाँ बावर्ची का काम करते-करते उम्र गुजर गई, आज रईस बनने चले हैं। रईस बनना कुछ दिल्लगी नहीं!

मीर—क्यों अपने बुजुर्गों के मुँह कालिख लगाते हो—वे ही बावर्ची का काम करते होंगे। यहाँ तो हमेशा बादशाह के दस्तरख़्वान पर खाना खाते चले आये हैं।

मिर्ज़ा—अरे चल चरकटे, बहुत बढ़-बढ़कर बातें न कर।

मीर—ज़बान सँभालिये, वर्ना बुरा होगा। मैं ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं हूँ। यहाँ तो किसी ने आँखें दिखाईं, कि उसकी आँखें निकालीं। है हौसला?

मिर्ज़ा—आप मेरा हौसला देखना चाहते हैं, तो फिर आइये, आज दो-दो हाथ हो जायँ, इधर या उधर!

मीर—तो यहाँ तुमसे दबनेवाला कौन है?

दोनो दोस्तों ने कमर से तलवारें निकाल ली! नवाबी ज़माना था; सभी तलवार, पेशकब्ज़, कटार बग़ैरह बाँधते थे। दोनो विलासी थे; पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था—बादशाह के लिए, बादशाहत के लिए क्यों मरे? पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनो ने पैतरे बदले, तलवारें चमकी, छपाछप की आवाज़ें आईं। दोनों जख्म खाकर गिरे, और दोनो ने वहीं तड़प-तड़पकर