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प्रेम-द्वादशी

रोते थे । दोनो भाई खड़े तमाशा देखते थे । बूढ़े चौधरी ने यह दृश्य देखा, और सिर पीट लिया। यह द्वेषाग्नि है। घर को जलाकर तब बुझेगी।

( ३ )

यह ज्वाला तो थोड़े देर में शांत हो गई ; परन्तु हृदय की आग ज्यों-की-त्यों दहकती रही । अन्त में एक दिन बूढ़े चौधरी ने घर के सब मेंबरों को एकत्र किया, और इस गूढ विषय पर विचार करने लगे, कि बेड़ा कैसे पार हो । बितान से बोले-बेटा, तुमने अाज देखा कि बात-की- बात में सैकड़ों रुपयों पर पानी फिर गया। अब इस तरह निर्वाह होना असम्भव है। तुम समझदार हो, मुकदमे-मामले करते हो, कोई ऐसी राह निकालो, कि घर डूबने से बचे । मैं तो यह चाहता था, कि जब तक चोला रहे, सबको समेटे रहूँ; मगर भगवान् के मन में कुछ और ही है।

बितान की नीतिकुशलता अपनी चतुर सहगामिनी के सामने लुप्त हो जाती थी । वह अभी इसका उत्तर सोच ही रहे थे, कि श्रीमतीजी बोल उठीं--दादाजी ! अब समझाने-बुझाने से काम न चलेगा; सहते- सहते हमारा कलेजा पक गया। बेटे की जितनी पीर बाप को होगी, भाइयों को उतनी क्या, उसकी आधी भी नहीं हो सकती। मैं तो साफ कहती हूँ--गुमान का तुम्हारी कमाई में हक्क है, उन्हें कंचन के कौर खिलाओ, और चाँदी के हिंडोले में मुलायो । हम में न इतना बूता है, न इतना कलेजा | हम अपनी झोपड़ी अलग बना लेंगे। हाँ, जो कुछ हमारा हो वह हमको मिलना चाहिये । बाँट-बखरा कर दीजिये । बला से चार आदमी हसेंगे, अब कहाँ तक दुनिया की लाज दोवें।

नीतिज्ञ बितान पर इस प्रबल वक्तृता का असर हुआ। वह उनके विकसित और प्रमुदित चेहरे से झलक रहा था। उनमें स्वयं इतना साहस न था, कि इस प्रस्ताव को इतनी स्पष्टता से व्यक्त कर सकते । नीतिज्ञ महाशय गम्भीरता से बोले-जायदाद मुश्तरका, मन्कूला या गैरमन्कूला, अापके हीन-हयात तकसीम की जा सकती है, इसकी नज़ीरें