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प्रेम-द्वादशी

साईंदास—अजी तो कहीं लिखो भी! तुम्हारी समझ में सारी दुनिया बेईमानों से भरी है।

बाबू—बाबा, लिखने को तो हम सब जगह लिख दें; मगर खाली लिख देने से तो कुछ लाभ नहीं होता।

लाला साईंदास अपनी कुल-प्रतिष्ठा और मर्यादा के कारण बैंक के मैनेजिंग डाइरेक्टर हो गये थे; पर व्यावहारिक बातों से अपरिचित थे। यही बंगाली बाबू इनके सलाहकार थे, और बाबू साहब को किसी कारखाने या कंपनी पर भरोसा न था। इन्हीं के अविश्वास के कारण पिछले साल बैंक का रुपया सन्दूक से बाहर न निकल सका था, और अब वही रंग फिर दिखाई देता था। साईंदास को इस कठिनाई से बचने का कोई उपाय न सूझता था। न इतनी हिम्मत थी, कि अपने भरोसे किसी व्यापार में हाथ डालें। बेचैनी की दशा में उठकर कमरे में टहलने लगे, कि दरबान ने आकर खबर दी—बरहल की महारानी की सवारी आई है।

(२)

लाला साईंदास चौंक पड़े। बरहल की महारानी को लखनऊ आये तीन-चार दिन हुए थे, और हर एक के मुँह से उन्हीं की चर्चा सुनाई देती थी। कोई उनके पहनावे पर मुग्ध था, कोई सुन्दरता पर, कोई उनकी स्वच्छंद वृत्ति पर। यहाँ तक कि उनकी दासियाँ और सिपाही आदि भी लोगों की चर्चा के पात्र बने हुए थे। रायल होटल के द्वार पर दर्शकों की भीड़-सी लगी रहती है। कितने ही शौक़ीन, बेफ़िकरे लोग इतर-फ़रोश, बजाज़ या तम्बाकूगर का वेष धरकर उनका दर्शन कर चुके थे। जिधर से महारानी की सवारी निकल जाती, दर्शकों के ठट लग जाते थे। वाह-वाह, क्या शान है! ऐसी इराकी जोड़ी लाट साहब के सिवा किसी राजा-रईस के यहाँ तो शायद ही निकले, और सजावट भी क्या खूब है! भई, ऐसे गोरे आदमी तो यहाँ भी नहीं दिखाई देते। यहाँ के रईस तो मृगांक, चन्द्रोदय और ईश्वर जाने, क्या-क्या ख़ाक-बला खाते