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दुर्गा का मन्दिर


वृद्धा—पूरे एक सौ बीस।

भामा—कैसे खोये?

वृद्धा—क्या जाने कहीं गिर गये। मेरे स्वामी पलटन में नौकर थे। आज कई बरस हुए, वह परलोक सिधारे। अब मुझे सरकार से साठ रुपए साल पेंशन मिलती है। अबकी दो साल की पेंशन एक साथ ही मिली थी। खज़ाने से रुपए लेकर आ रही थी। मालूम नहीं, कब और कहाँ गिर पड़े। आठ गिन्नियाँ थीं।

भामा—अगर वे तुम्हें मिल जायँ, तो क्या दोगी?

वृद्धा—अधिक नहीं, उसमें से पचास रुपए दे दूँगी।

भामा—रुपए क्या होंगे, कोई उससे अच्छी चीज़ दो।

वृद्धा—बेटी, और क्या दूँ, जब तक जीऊँगी, तुम्हारा यश गाऊँगी।

भामा—नहीं, इसकी मुझे आवश्यकता नहीं।

वृद्धा—बेटी, इसके सिवा मेरे पास क्या है?

भामा—मुझे आशीर्वाद दो। मेरे पति बीमार हैं, वह अच्छे हो जायँ।

वृद्धा—क्या उन्हीं को रुपए मिले हैं?

भामा—हाँ, वह उसी दिन से तुम्हें खोज रहे हैं।

वृद्धा घुटनों के बल से बैठ गई, और आँचल फैलाकर कम्पित स्वर से बोली—देवी! इनका कल्याण करो।

भामा ने फिर देवी की ओर सशंक दृष्टि से देखा। उनके दिव्य रूप पर प्रेम का प्रकाश था। आँखों में दया की आनंददायिनी झलक थी। उस समय भामा के अन्तःकरण में कहीं स्वर्गलोक से यह ध्वनि सुनाई दी—जा तेरा कल्याण होगा।

(६)

सन्ध्या का समय है। भामा ब्रजनाथ के साथ इक्के पर बैठ तुलसी के घर उसकी थाती लौटाने जा रही है। ब्रजनाथ के बड़े परिश्रम की कमाई तो डॉक्टर की भेंट हो चुकी है। लेकिन भामा ने एक पड़ोसी के हाथ अपने कानों के झुमके बेचकर रुपए जुटाये हैं। जिस समय झुमके