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दुर्गा का मन्दिर

आवश्यक पत्र आ गया, और मैं किसी तरह तीन महीने की छुट्टी लेकर घर भागा। वहाँ की विपत्ति-कथा कहूँ, तो समाप्त न हो; लेकिन आपकी बीमारी का शोक-समाचार सुनकर आज भागा चला आ रहा हूँ। ये लीजिये, रुपए हाज़िर हैं। इस विलम्ब के लिए अत्यन्त लज्जित हूँ।

ब्रजनाथ का क्रोध शान्त हो गया। विनय में कितनी शक्ति है! बोले—जी हाँ, बीमार तो था; लेकिन अब अच्छा हो गया हूँ। आपको मेरे कारण व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ा। यदि इस समय आपको असुविधा हो, तो रुपये फिर दे दीजियेगा। मैं अब उऋण हो गया हूँ। कोई जल्दी नहीं है।

गोरेलाल विदा हो गये, तो व्रजनाथ रुपए लिये हुए भीतर आये, और भामा से बोले—ये लो अपने रुपये; गोरेलाल दे गये।

भामा ने कहा—ये मेरे रुपए, नहीं, तुलसी के हैं; एक बार पराया धन लेकर सीख गई।

व्रज॰—लेकिन तुलसी के तो पूरे रुपये दे दिये गये?

भामा—दे दिये गये, तो क्या हुआ? ये उसके आशीर्वाद की न्योछावर हैं।

व्रज॰—कान के झुमके कहाँ से आवेंगे?

भामा—झुमके न रहेंगे न सही, सदा के लिए 'कान' तो हो गये।