पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७४
प्रेम-द्वादशी

दर्बार में उत्तरदाता हूँ, उसके प्रति ऐसा घोर अन्याय और पशुवत् व्ययहार मुझे असह्य है। आप सच मानिये, मेरे लिए यही कुछ कम नहीं है, कि लाल बिहारी को कुछ दण्ड नहीं देता।

अब बेनीमाधवसिंह भी गरमाये। ऐसी बातें और न सुन सके। बोले—लाल बिहारी तुम्हारा भाई है। उससे जब कभी भूल-चूक हो, उसके कान पकड़ो। लेकिन...

श्रीकंठ—लाल बिहारी को मैं अब अपना भाई नहीं समझता।

बेनीमाधव सिंह—स्त्री के पीछे?

श्रीकंठ—जी नहीं, उसकी क्रूरता और अविवेक के कारण।

दोनों कुछ देर चुप रहे। ठाकुर साहब लड़के का क्रोध शान्त करना चाहते थे, लेकिन यह नहीं स्वीकार करना चाहते थे, कि लाल बिहारी ने कोई अनुचित काम किया है। इसी बीच में गाँव के और कई सज्जन हुक्के चिलम के बहाने वहाँ आ बैठे। कई स्त्रियों ने जब यह सुना, कि श्रीकंठ पत्नी के पीछे पिता से लड़ने पर तैयार हैं, तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। दोनों पक्षों की मधुर वाणियाँ सुनने के लिए उनकी आत्माएँ तलमलाने लगीं। गाँव में कुछ ऐसे कुटिल मनुष्य भी थे, जो इस कुल की नीतिपूर्ण गति पर मन-ही-मन जलते थे, वे कहा करते थे—श्रीकंठ अपने बाप से दबता है; इसलिए वह दब्बू है। उसने विद्या पढ़ी; इसलिए वह किताबों का कीड़ा है। बेनीमाधव सिंह उसकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते, यह उनकी मूर्खता है। इन महानुमावों की शुभ कामनाएँ आज पूरी होती दिखाई दीं। कोई हुक्का पीने के बहाने और कोई लगान की रसीद दिखाने आकर बैठ गया। बेनीमाधव सिंह पुराने आदमी थे। इन भावों को ताड़ गये। उन्होंने निश्चय किया, कि चाहे कुछ ही क्यों न हो, उन द्रोहियों को ताली बजाने का अवसर न दूँगा। तुरन्त कोमल शब्दों में बोले—बेटा, मैं तुमसे बाहर नहीं हूँ। तुम्हारा जो जी चाहे करो, अब तो लड़के से अपराध हो गया।

इलाहाबाद का अनुभव-रहित झल्लाया हुआ ग्रेजुएट इस बात को न समझ सका। उसे डिबेटिंग-क्लब में अपनी बात पर अड़ने की आदत