करूँगा, कभी ज़िद न करूँगा, अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाया करूँगा।
विवाह के दिन आए। घर में तैयारियाँँ होने लगीं। सत्य- प्रकाश खुशी से फूला न समाता। मेरी नई अम्मा आवेगी। बरात में वह भी गया। नए-नए कपड़े मिले। पालकी पर बैठा। नानी ने अंदर बुलाया, और उसे गोद में लेकर एक अशरफी दी। वहीं उसे नई माता के दर्शन हुए। नानी ने नई माता से कहा―बेटी, कैसा सुदर बालक है! इसे प्यार करना।
सत्यप्रकाश ने नई माता को देखा और मुग्ध हो गया। बच्चे भो रूप के उपासक होते हैं। एक लावण्यमयी मूर्ति आभूषणों से लदी सामने खड़ी थी। उसने दोना हाथो से उसका अचल पकड़कर कहा―अम्मा!
कितना अरुचिकर शब्द था, कितना लज्जायुक्त, कितना अप्रिय! वह ललना, जो 'देवप्रिया' नाम से संबोधित होती थी, उत्तरदायित्व, त्याग और क्षमा का संबोधन न सह सकी। अभी वह प्रेम और विलास का सुख-स्वप्न देख रही थी―यौवन- काल की मदमय वायु-तरँगों में आंदोलित हो रही थी। इस शब्द ने उसके स्वप्न को भंग कर दिया। कुछ रुष्ट होकर बोली―मुझे अम्मा मत कहो।
सत्यप्रकाश ने विस्मित नेत्रों से देखा। उसको बाल-स्वप्न भंग हो गया। आँखें डबडबा गई। नानी ने कहा―बेटी,