सत्यप्रकाश का 'घर' कहाँ था? वह कौन-सी शक्ति थी, जो कलकत्ते के विराट् प्रलोभनों से उसकी रक्षा करती थी?― माता का प्रेम, पिता का स्नेह, बाल-बच्चों की चिंता?―नहीं, उसका रक्षक, उद्धारक, उसका परितोषक केवल ज्ञानप्रकाश का स्नेह था। उसी के निमित्त वह एक-एक पैसे की किफायत करता। उसी के लिये वह कठिन परिश्रम करता―धनोपार्जन के नए-नए उपाय सोचता। उसे ज्ञानप्रकाश के पत्रों से मालूम हुआ था कि इन दिनों देव काश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं। वह एक घर बनवा रहे हैं, जिसमे व्यय अनुमान से अधिक हो जाने के कारण ऋण लेना पड़ा है; इसलिये अब ज्ञानप्रकाश का पढ़ाने के लिये घर पर मास्टर नहीं आता। तब से सत्यप्रकाश प्रतिमास ज्ञानू के पास कुछ-न-कुछ अवश्य भेज देता था। वह अब केवल पत्र-लेखक न था, लिखने के सामान की एक छोटी-सी दूकान भी उसने खोल ली थी। इससे अच्छी आमदनी हो जाती थी। इस तरह पाँच वर्ष बीत गए। रसिक मित्रों ने जब देखा कि अब यह हत्थे नहीं चढ़ता, तो उसके पास आना-जाना छोड़ दिया।
( ८ )
संध्या का समय था। देवप्रकाश अपने मकान में बठे देव- प्रिया से ज्ञानप्रकाश के विवाह के संबंध में बातें कर रहे थे। ज्ञानू अब १७ वर्ष का सुदरयुवक था। बाल-विवाह के विरोधी होने पर भी देवप्रकाश अब इस शुभ-मुहूर्त को न टाल सकते