थी क्या? क्या मैं श्रम से जी चुराता था? अगर बालपन ही में मेरे उत्साह और अभिरुचि पर तुषार न पड़ गया होता, मेरी बुद्धि—शक्तियों का गला न घोट दिया गया होता, तो मैं भी आज आदमी होता, पेट पालने के लिये इस विदेश में न पड़ा रहता। नहीं, मैं अपने ऊपर यह अत्याचार न करूँँगा।
महीनों तक सत्यप्रकाश के मन और बुद्धि में यह संघर्ष होता रहा। एक दिन वह दूकान से आकर चूल्हा जलाने जा रहा था कि डाकिए ने पुकारा। ज्ञानप्रकाश के सिवा उसके पास और किसी के पत्र न आते थे। आज हो उनका पत्र आ चुका था। यह दूसरा पत्र क्यों? किसी अनिष्ट को आशंका हुई। पत्र लेकर पढ़ने लगा। एक क्षण मे पन्न उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ा, और वह सिर थामकर बैठ गया कि जमीन पर न गिर पड़े। यह देवप्रिया की विष- युक्त लेखनी से निकला हुआ ज़हर का तीर था, जिसने एक पल मे उसे संज्ञाहीन कर दिया। उसकी सारो ममीतक व्यथा―क्रोध, नैराश्य, कृतघ्नता, ग्लानि―केवल एक ठंडी साँस में समाप्त हो गई।
वह जाकर चारपाई पर लेट रहा। मानसिक व्यथा आप- से आप पानी हो गई। हा! सारा जीवन नष्ट हो गया! मैं ज्ञानप्रकाश का शत्रु हूँ? मैं इतने दिनों से केवल उसके जीवन को मिट्टी में मिलाने के लिये ही प्रेम का स्वाँग भर रहा हूँ? भगवन्! तुम्हीं इसके साक्षी हो!
तीसरे दिन फिर देवप्रिया का पत्र पहुँचा। सत्यप्रकाश ने उसे लेकर फाड़ डाला। पढ़ने की हिम्मत न पड़ी।