उनका शव निकला, तो सारा शहर अर्थी के साथ था। उनके स्मारक बनने लगे। कहीं छात्रवृत्तियाँ दी गई, कहीं उनकें चित्र बनवाए गए, पर सबसे अधिक महत्त्वशाली वह मूर्ति थी, जो श्रमजीवियों की ओर से उनकी स्मृति में प्रतिष्ठित हुई थी।
मानकी को अपने पतिदेव का लोकसम्मान देखकर सुखमय कुतूहल होता था। उसे अब खेद होता था कि मैंने उनके दिव्य गुणों को न पहचाना, उनके पवित्र भावों और उच्च विचारों की कदर न की। सारा नगर उनके लिये शोक मना रहा है। उनकी लेखनी ने अवश्य इनके ऐसे उपकार किए हैं, जिन्हें ये भूल नहीं सकते; और, मैं अंत तक उनके मार्ग का कंटक बनी रही, सदैव तृष्णा के वश उनका दिल दुखाती रही। उन्होंने मुझे साने में मढ़ दिया होता, एक भव्य भवन बनवाया होता, या कोई जायदाद पैदा कर ली होती, तो मैं ख़ुश होती, अपना धन्य भाग्य समझती। लेकिन तब देश में कौन उनके लिये आँसू बहाता, कौन उनका यश गाता। यहीं एक-से-एक धनिक पुरुष पड़े हुए हैं। वे दुनिया से चले जाते है, और किसी को खबर भी नहीं होती। सुनती हूँ, पतिदेव के नाम से छात्रों को वृत्तियाँ दी जायँगी। जो लड़के वृत्ति पाकर विद्या- लाभ करेगे, वे मरते दम तक उनकी आत्मा को आशी- र्वाद देंगे। शोक! मैंने उनके आत्मस्यांग का मर्म न जाना। स्वार्थ ने मेरी आँखों पर पर्दा डाल दिया था।