भाई कर रहे हैं, जिससे न्याय और धर्म का ख़ून हो रहा है। उनकी वकालत उच्च कोटि की थी।
मानकी―अगर ऐसा है, तो तुम भी वही वकालत क्यों नहीं करते?
कृष्ण॰―बहुत कठिन है। दुनिया का जँजाल अपने सिर लीजिए, दूसरो के लिये रोइए, दोनों को रक्षा के लिये लट्ठ लिए फिरिए, अधिकारियों के मुँह आइए, इनका क्रोध और कोप सहिए, और इस कष्ट, अपमान और यंत्रणा का पुरस्कार क्या है? अपनो अभिलाषाओं की हत्या।
मानकी―लेकिन यश तो होता है।
कृष्ण॰―हाँ, यश होता है। लोग आशीर्वाद देते हैं।
मानकी―जब इतना यश मिलता है, तो तुम भी वही काम करो। हम लोग उस पवित्र आत्मा को और कुछ सेवा नहीं कर सकते, तो उसी वाटिका को सींचते जायँ, जो उन्होंने अपने जीवन में इतने उत्सर्ग और भक्ति से लगाई। इससे उनकी आत्मा को शांति मिलेगी।
कृष्णचंद्र ने माता को श्रद्धामय नेत्रों से देखकर कहा― करूँ तो, मगर संभव है, तब यह टीम-टाम न निभ सके। शायद फिर वही पहले की-सी दशा हो जाय।
मानकी―कोई हरज नहीं। संसार में यश तो होगा। आज तो अगर धन की देवी भी मेरे सामने आये, तो मैं आँखें न नीची करूँ।