शीतला आज अपने गाँव के ताल्लुकेदार कुँअर सुरेशसिंह की नवविवाहिता वधू को देखने गई थी। उसके सामने ही वह मंत्र-मुग्ध-सी हो गई। बहू के रूप-लावण्य पर नहीं, उसके आभूषणो की जगमगाहट पर उसकी टकटकी लगी रही। और, वह जब से घर लौटकर आई, उसकी छाती पर साँप लोटता रहा। अंत को ज्यो ही उसका पति घर आया, वह उस पर बरस पड़ी, और दिल में भरा हुआ ग़ुबार पूर्वोक्त शब्दों में निकल पड़ा। शीतला के पति का नाम विमलसिह था। उसके पुरखे किसी जमाने में इलाक़ेदार थे। इस गाँव पर भी उन्हीं का सोलहो आने अधिकार था। लेकिन अब इस घर की दशा हीन हो गई है। सुरेशसिह के पिता ज़मीदारी के काम में दक्ष थे। विमलसिह का सब इलाक़ा किसी-न-किसी प्रकार से उनके हाथ आ गया। विमल के पास सवारी का टट्टू भी न था। उसे दिन में दो बार भोजन भी मुशकिल से मिलता था। उधर सुरेश के पास हाथी, मोटर और कई घोड़े थे; दस-पाँच बाहर के आदमी नित्य द्वार पर पड़े रहते थे। पर इतनी विष- मता होने पर भी दोनो में भाई-चारा निभाया जाता था, शादी- व्याह में, मूँँडन-छेदन में परस्पर आना-जाना होता रहता था। सुरेश विद्या-प्रेमी थे, हिदुस्थान में ऊँची शिक्षा समाप्त करके वह योरप चले गए, और सब लोगो की शंकाओ के विपरीत वहाँ से आर्य-सभ्यता के परम भक्त बनकर लौटे थे। वहाँ के जड़वाद, कृत्रिम भोगलिप्सा और अमानुपिक मदांधता के
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