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प्रेम-पंचमी

ख़ैर, अभी चलूँ। छ. महीने में फिर लौट आऊँगा। अपनी जायदाद तो बच जायगी। नहीं, छः महीने रहने का क्या काम है? जाने-बाने में एक महीना लग जायगा। घर में १५ दिन से ज्यादा न रहूँगा। वहाँ कौन पूछता है, आऊँ या रहूँ, मरूँ या जिऊँ; वहाँ तो गहनों से प्रेम है।

इस तरह मन में निश्चय करके वह दूसरे दिन रँगून से चल पड़ा।

( ३ )

संसार कहता है, गुण के सामने रूप की कोई हस्ती नहीं। हमारे नीति-शास्त्र के आचार्यो का भी यही कथन है। पर वास्तव में यह कितना भ्रम-मूलक है! कुँअर सुरेशसिंह की नववधू मंगलाकुमारी गृह-कार्य मे निपुण, पति के इशारे पर प्राण देने- वाली, अत्यंत विचारशीला, मधुर-भाषिणी और धर्म-भीरु थी; पर सौदर्य-विहीन होने के कारण पति को आँखो से काँँटे के समान खटकती थी। सुरेशसिंह बात-बात पर उस पर झुँझलाते, पर घड़ी-भर मे पश्चात्ताप के वशीभूत होकर उससे क्षमा माँगते; किंतु दूसरे ही दिन फिर वही कुत्सित व्यापार शुरू हो जाता। विपत्ति यह थी कि उनके आचरण अन्य रईसों की भाँति भ्रष्ट न थे। वह दांपत्य जीवन ही में आनंद, सुख, शांति, विश्वास, प्रायः सभी ऐहिक और पारमार्थिक उद्देश्य पूरा करना चाहते थे, और दांपत्य सुख से वंचित होकर उन्हें अपना समस्त जीवन नीरस, स्वाद-हीन और कुंठित जान पड़ता था। फल