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प्रेम-पंचमी

बाधक था, बल्कि यही उसको आशा-लताओ पर पड़नेवाला तुषार था। मंगला सुंदरी न सही, पर पति पर जान देता था। जो अपने को चाहे, उससे हम विमुख नहीं हो सकते; प्रेम की शक्ति अपार है। पर शीतला की मूर्ति सुरेश के हृदय-द्वार पर बैठी हुई मंगला को अंदर न जाने देती थी, चाहे वह कितना ही वेष बदलकर आवे। सुरेश इस मूर्ति को हटाने की चेष्टा करते थे, उसे बलात् निकाल देना चाहते थे; किंतु सौंदर्य का आधिपत्य धन के आधिपत्य से कम दुर्निवार नहीं होता। जिस दिन शीतला इस घर में मँगला का मुँह देखने आई थी, उसी दिन सुरेश की आँखो ने उसकी मनोहर छवि की एक झलक देख ली थी। वह एक झलक मानो एक क्षणिक किया थी, जिसने एक ही धावे मे समस्त हृदय-राज्य को जीत लिया― उस पर अपना आधिपत्य जमा लिया।

सुरेश एकांत में बैठे हुए शीतला के चित्र को मंगला से मिलाते, यह निश्चय करने के लिये कि उनमे अंतर क्या है? एक क्यों मन को खीचती है, दूसरी क्यों उसे हटाती है? पर उनके मन का यह खिचाव केवल एक चित्रकार या कवि का रसास्वादन-मात्र था। वह पवित्र और वासनाओं से रहित था। वह मूर्ति केवल उनके मनोरंजन की सामग्री-मात्र थी। वह अपने मन को बहुत समझाते, संकल्प करते कि अब मँगला को प्रसन्न रक्खूँगा। यदि वह सुंदरी नहीं है, तो उसका क्या दोष? पर उनका यह सब प्रयास मंगला के सम्मुख जाते ही