पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१८४

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सांख्यदर्शन।
 

उसका मूल बाह्य पदार्थ ही है। हमारे वाक्यसे तुम अपमानित हुए। हमारा वाक्य एक प्राकृतिक पदार्थ है। उसे तुमने श्रवणेन्द्रियद्वारा ग्रहण किया, इस लिए तुम्हें दुःख हुआ। अतएव प्रकृतिके अतिरिक्त कोई दुःख नहीं है। परन्तु अब प्रश्न यह है कि प्रकृतिघटित दुःखका अनुभव पुरुषको क्यों होता है ? असङ्गोऽयम्पुरुषः। पुरुष तो असंग है। (अ० १, सू० १५) अवस्थादि शरी- रकी हैं, आत्माकी नहीं। (अ० १, सू० १४) न बाह्यान्तरयोरुपरज्योपर- जकभावोऽपि देशव्यधानात् श्रुघ्नस्थपाटलिपुत्रयोरिव । बाह्य और आन्तरिकके बीच उपरज्य और उपरज्जक भाव नहीं है, क्योंकि वे परस्पर संलग्न नहीं हैं, देशव्यवधानयुक्त हैं। जिस तरह एक आदमी पटनेमें रहता है और दूसरा श्रुघ्न नगरमें रहता है। इनका परस्पर अन्तर भी उसी प्रकारका है। तो फिर पुरुषको दुःख क्यों होता है ?

प्रकृतिके साथ संयोग ही पुरुषके दुःखका कारण है। यद्यपि प्रकृति और पुरुष जुदा जुदा हैं—दोनोंमें बाह्य और आन्तर देशव्यवधान है, किन्तु ऐसा नहीं है कि उनमें किसी प्रकारका संयोग है ही नहीं। यदि एक स्फटिकके पात्रके पास गुलाबका फूल रक्खा जाय, तो वह फूलके रंगके समान गुलाबी रंगका हो जायगा और इसलिए कहा जायगा कि फूल और पात्रमें एक प्रकारका संयोग है। प्रकृति और पुरुषका संयोग भी इसी प्रकारका है। जिस तरह फूल और पात्रमें व्यवधान रहनेपर भी पात्रका वर्ण विकृत हो सकता है, उसी प्रकार प्रकृतिसे जुदा होने पर भी पुरुष विकारयुक्त होता है। परन्तु इस प्रका- रका संयोग नित्य नहीं होता है, यह स्पष्ट है; इसलिए इसका उच्छेद हो सकता है और इस संयोगका उच्छेद होनेसे ही दुःखके या विकृतिके कारण दूर हो सकते हैं। अतएव इस संयोगकी उच्छित्ति ही दुःखनिवारणका उपाय है और यही पुरुषार्थ है। यद्वातद्वा तदुच्छित्तिः पुरुषार्थस्तदुच्छित्तिः पुरुषार्थः । (अ० ६, सू० १०)।

यह प्रकृति-पुरुषसंयोगकी उच्छित्ति ही सांख्यका अपवर्ग या मोक्ष है और वह विवेकके द्वारा प्राप्त हो सकता है। प्रकृति-पुरुषसम्बन्धी ज्ञानको ही विवेक कहते हैं। अतएव ज्ञान ही मुक्ति है । जिस तरह पाश्चात्य सभ्यताका मूल

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