पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/३७

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बंकिम-निबन्धावली—
 

फिर उसी दुःखका सामना है। इस अनन्त दुःखकी क्या निवृत्ति नहीं है ? मनुष्यका निस्तार नहीं है ?

इसके दो उत्तर हैं। एक उत्तर यूरोपका है और एक उत्तर भारतवर्षका है। यूरोपके लोग कहते हैं कि प्रकृति जीती जा सकती है। जिससे प्रकृति पर जय पा सको, वही चेष्टा करो। इस जीवन-संग्राममें प्रकृतिको परास्त करनेके लिए शस्त्र-संग्रह करो। प्रकृतिसे पूछने पर वह खुद उन शस्त्रोंको बतला देगी। प्राकृतिक तत्त्वोंका अध्ययन करो। प्रकृतिके गुप्त तत्त्वोंको जान- कर उन्हीके बलसे प्रकृतिको जीतकर मनुष्य-जीवनको सुखमय बनाओ। इस उत्तरका फल यूरोपका विज्ञानशास्त्र है।

भारतवर्षका उत्तर यह है कि प्रकृति अजेय है। जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रहेगा तब तक दुःख भी रहेगा। अतएव प्रकृतिसे सम्बन्ध न रखना ही दुःखनिवारणका एक मात्र उपाय है। वह सम्बन्धविच्छेद केवल ज्ञानके ही द्वारा हो सकता है। इस उत्तरका फल भारतके दर्शनशास्त्र हैं।

वह ज्ञान क्या है ? आकाश-कुसुम कहनेसे भी तो एक ज्ञान होता है । क्योंकि आकाश क्या है सो हम जानते है और कुसुम क्या है सो भी हम जानते हैं। मनकी शक्तिके द्वारा दोनोंका संयोग कर सकते हैं। किन्तु ऐसा ज्ञान दर्शनका उद्देश्य नहीं है। यह भ्रम-ज्ञान हैं; यथार्थ ज्ञान ही दर्शनका उद्देश्य है। इस यथार्थ ज्ञानको प्रमा-ज्ञान वा प्रमा-प्रतीति कहते हैं। यह यथार्थ ज्ञान क्या है ?

जो जानते हैं वही ज्ञान है । जो जानते हैं उसे किस तरह जाना है ?

कुछ विषयोंको इन्द्रियोंके साक्षात् संयोगसे जान सकते हैं । यह घर, यह वृक्ष, यह नदी, यह पर्वत हमारे सामने हैं । इनको हम आँखोंसे देख रहे हैं। इस लिए हम जानते हैं कि यह घर, यह वृक्ष, यह नदी, यह पर्वत है। अतएव ज्ञातव्य पदार्थके साथ चक्षु-इन्द्रियके संयोगसे हमें उक्त ज्ञान प्राप्त हुआ ।* इसे चाक्षुष-प्रत्यय कहते हैं। इसी तरह घरमें

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* गृह-पर्वत आदि दूर हैं, हमारी आँखोंसे लगे हुए नहीं हैं, तो फिर इन्द्रियसे उनका संयोग किस तरह हुआ? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि दृष्ट पदार्थपर किरणें पड़ती हैं और वे किरणें वहाँसे पलटकर जब हमारे नेत्रोंमें प्रवेश करती हैं तब वह पदार्थ हमें दीख पड़ता है।

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