११४ बगुला के पंख हंस सका। अभी तक पद्मादेवी के आलिंगन और आंसू-भरी आंखों के चुम्बनों की गर्मी उसके रक्त में बनी हुई थी। उसने कहा, 'देखूगा ।' पर जुगनू को नवाब का यह प्रस्ताव कुछ अच्छा नहीं लगा। वह नहीं जानता था कि इससे क्या लाभ होगा। फिर विना बुलाए वह वहां जाना नहीं चाहता था । लाला बुलाकीदास की उसपर कृपा थी, विश्वास था। वे जुगनू की सेवा, लगन और भलमनसाहत के प्रशंसक थे। जुगनू ही की बदौलत उनकी चेअरमैनी की गाड़ी रड़क रही थी। सब काम जुगनू करता था, श्रेय लालाजी को मिलता था। उन्होंने अब सभी महत्त्वपूर्ण काम जुगनू को सौंपे हुए थे। जुगनू के हाथ में पद थे, नौकरियां थीं, कण्ट्रैक्ट थे, परमिट थे, पट्टे थे, और नवाब की संसार-बुद्धि थी जिसे उसने सबकी नज़र से छिपाकर रखने ही में भलाई समझी हुई थी। अतः लाला बुलाकीदास को तो चेअरमैनी के सब झंझटों से जुगनू के कारण छुट्टी मिली हुई थी और जुगनू को बुलाकीदास के कारण आमदनी के हज़ार सूत्र मिल गए थे। अब रुपया था जो बरसाती नदी की तरह उमड़ता हुआ जुगनू के पास आ रहा था। वह अंधाधुन्ध खर्च करता था। फिर भी रुपया कम न होता था। नवाब ने कहा, 'क्या सोचने लगे दोस्त ?' 'मैं सोच रहा हूं, लाला बुलाकीदास का मेरे ऊपर कितना विश्वास है, मेरे ऊपर आफिस का सब भार छोड़कर वे बेफिक्र हैं।' 'भई, तुम्हारे भाई साहब शोभाराम भी तो तुमपर आफिस का सब भार छोड़कर बेफिक्र हो गए थे। तुमने भार संभाल लिया और साथ ही भाभी का भी चार्ज ले लिया। ऐसा ही यहां भी करो। शोभाराम बीमार और कमज़ोर आदमी है । लाला बुलाकीदास बूढ़े और बनिए आदमी हैं। बीवी दोनों की जवान हैं। बस, उस्ताद की सीख मानो। लाला की कृपा का लाभ उठाकर उनके घर में घुस जाओ।' 'तुम समझते हो इससे कुछ फायदा होगा ?' 'नवाब तो फायदे ही की सलाह देता है । अच्छा, अब चलता हूं।' नवाब उठ खड़ा हुआ। जुगनू पर अभी तक पद्मादेवी का रंग चढ़ा था। वह कुछ अनमना-सा हो रहा था। जब नवाब जाने लगा तो उसने कहा, 'जा ही रहे हो ?'
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