११८ बगुला के पंख कोई बत्तीस साल। 'आपने बड़ी जहमत उठाई। क्या ज़रूरत थी भला इतनी तकलीफ करने की ?' जुगनू ने खड़े होकर दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया। मुस्कराते हुए कहा, 'तकलीफ क्यों कहती हैं ? मैं बेघरबार का आदमी, अकेला पंछी । अब तो यही मेरा घर है । एक दोस्त ने लखनऊ से भेजे थे, ले आया।' 'बैठिए आप । लालाजी तो आपकी बड़ी तारीफ किया करते हैं । कई बार कहा मैंने कि उन्हें एक बार खाने पर बुलायो। पर उन्हें फुर्सत हो तब न । बीस झंझट बांध रखे हैं । अब आज आप खुद ही आ गए। बड़ी कृपा की।' 'तो हाथी के पांव में सबका पांव । दिल्ली शहर में कौन है जो उनका सामना कर सके और मैं तो उन्हें बड़ा भाई मानता हूं। आदमी क्या हैं, देवता हैं।' 'सब आप लोगों की कृपा है । सुना है आप तो कवि हैं।' 'यों ही कुछ कह लेता हूं। क्या आप भी कुछ शौक रखती हैं ?' 'कविता सुनने का मुझे बहुत शौक है। पढ़ती भी रहती हूं, पर आप तो उर्दू में कविता करते हैं।' 'लेकिन अव फुर्सत कहां मिलती है ! भाई साहब ने सारे काम का बोझ मेरे ही ऊपर डाल दिया है।' 'तो अपने आदमी पर ही तो भरोसा किया जा सकता है । उन्हें तो काम ही काम है । खाना-पीना भी तो समय पर नहीं होता।' 'नहीं, नहीं, भाभीजी, यह बात ठीक नहीं । आप उनपर ब्रेक लगाइए । उन्हें ज़बर्दस्ती आराम करने को मजबूर कीजिए। वे दिल्ली की हस्ती हैं । बस, पूजा करने के काबिल । जहां तक कमेटी के काम का ताल्लुक है, उस ओर से बेफिक्क रहें। मैं सब संभाल लूंगा।' 'यही तो बात है। लाख कहती हूं, सुनते नहीं हैं। भला किसके लिए इतनी हाय-हाय ! अकेले दम-न लड़का, न बच्चा । पर अपने शरीर को देखते नहीं। मैं तो देख-देखकर घुली जाती हूं।' 'जैसे वे दिल्ली की शोभा हैं, वैसे ही आप भी इस घर की शोभा हैं । आपके दर्शन तो पुण्यात्माओं ही को होते हैं । कुछ मेरे योग्य सेवा बताइए।'
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