बगुला के पंख १५९ को पीता रहा । उद्दीप्त वासना का एक ज्वार उसे डुबो रहा था-वह तप रहा था काम-ज्वाला की भट्टी में । उद्वेग का झंझावात जैसे उसे झकझोर रहा था। लोग कहते हैं-यही प्रेम है । यही प्रेम का उत्कट रूप है । परन्तु प्रेम नहीं, यह काम था; कोरा काम । प्रेम क्या है, इसे बहुत कम आदमी जानते हैं । मन में आत्मा को विभोर कर देनेवाली कुछ भावनाएं-सी उठती हैं। वह प्रेम है । प्रेमानुभूति के कारण मनुष्य' भौतिक जीवन से बहुत पृथक् हो जाता है। मैं स्वीकार करूंगा कि शरीर-विकास का इतिहास काम-विकास का क्रमशः प्रकटीकरण है। बच्चे काम- विकास से रहित होते हैं, यह उनपर दैवी अनुकम्पा है। क्योंकि उनके नन्हे कोमल हृदय और कोमल अंग काम के प्रचण्ड वेग को सहन ही नहीं कर सकते। बच्चों के अवयव यों अत्यन्त उत्तेजनापूर्ण होते हैं। उनका कोई भी अंग प्रासानी से उत्तेजित किया जा सकता है । इसीसे बड़े आदमियों की अपेक्षा बच्चों की इन्द्रियां अधिक उत्तेजित हो जाती हैं। बड़ी उम्र में समझदारी के साथ कामवासना को छिपाने की प्रवृत्ति भी बढ़ जाती है। पर बच्चों को इसकी परवाह नहीं होती । निस्संदेह उसमें स्वतः काम-भावना मौजूद रहती है। लैंगिक आकर्षण भी होता है। और चाहे भी जिस उम्र का छोटा बच्चा हो वह भिन्नलिंगी के प्रति आकर्षित होता है। पर बच्चे भोले और सरल होते हैं । वे भिन्नलिंगी होने पर परस्पर प्रगाढ़ मित्र बन जाते हैं । परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि वे सर्वत्र निर्दोष रहते हैं । वास्तव में भिन्नलिंगी बालकों का सम्पर्क आग से खेलना ही है । प्रेम की कोमल अनुभूति बालक के हृदय में सबसे अधिक होती है। उसीपर बालक का जीवन अग्रसर होता है । ज्यों-ज्यों आयु बढ़ती है उस अनुभूति में मनोभावनाओं का मिश्रण होता जाता है। सब बच्चों को सभ्य जीवन में पलने का सुअवसर नहीं मिलता । कुछ बच्चे पशुओं के समान जीवन व्यतीत करनेवाले दुराचारी, चरित्रहीन, दुर्व्यसनी और शराबी लोगों के सम्पर्क में जीवन व्यतीत करते हैं । या वे उन कस्बों और गांवों में पलते हैं जो नीच वातावरण से परिपूर्ण हैं । वहां से बच्चे अपनी तीव्र ग्राहक- शक्तियों के कारण, ज्यों-ज्यों वे बड़े होते जाते हैं, बुराइयों को ग्रहण करते जाते हैं, प्रेमानुभूति में मनोवासना उनका माध्यम होती है। एक बात और है,
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