बगुला के पंख १९३ धर्मशाला में सबको इकट्ठा करेंगे । सबसे कौल ले लेंगे।' 'बस इज़्ज़त तुम्हारे ही हाथ है।' इतना कहकर लाला फकीरचन्द वहां से चल दिए। समाज की रचना जिन पुरुषों ने की है, तथा नीति-निर्धारण जिन्होंने किया है, उन्हें हम निर्दय, निर्मम कहें तो अनुचित नहीं है। समाज-रचना का सारा ही ढांचा आर्थिक है। सम्पत्ति के चारों ओर मानव-जीवन को कसकर बांध दिया गया है । निर्दयता की चरम सीमा वहां पहुंचती है जहां समाज ने स्त्री- पुरुष को मिलाकर बांधा है । उनके स्त्रीत्व-पुरुषत्व की अवहेलना करके और पति-पत्नीत्व की एक कृत्रिम परिधि बनाकर न जाने युग-युग से कितनी अनीतियां, दुराचार और अपराध उस परिधि की सीमाओं को तोड़ने के लिए होते रहे हैं और आगे होते रहेंगे। असभ्य युग में नर-नारी का सीधा सम्बन्ध था। उसपर पत्नीत्व का खोल नहीं चढ़ाया गया था। आज जिस प्रकार पशु-पक्षी नर-मादा के अपने वैशिष्ट्य को मुक्त रूप में काम में लाते हैं वैसा ही उस युग में नर-नारी का भी संयोग था। परन्तु मनुष्य आर्थिक उपादानों में आगे फंसता गया और उसीके आधार पर नर नारी को भी अपने साथ बांधता चला गया। और वह समय भी आया जब नारी नारी न रह गई, एक कीमती रत्न' बन गई। पुरुष पत्थर ही बने रहे पर नारी रत्न' बन गई और वह तब से अब तक सभ्य जीवन में सभ्यता के नाम पर उस पत्थर के साथ बंधी रहकर अपना सारा. ही व्यक्तित्व खो चुकी है । सभ्य समाज नारी-स्वातन्त्र्य की हास्यास्पद चेष्टा करता चला आ रहा है, पर अवश नारी जिस दासता के बंधन में बंधी है वह उस युग से कम हीन नहीं है जब दास-दासी भेड़-बकरियों की भांति बाजारों में मोल बेचे जाते थे। मजे- दार बात यह है, रत्नों के मूल्य की अधिकता का कारण उनकी दुर्लभता है । पर नारी आज नर के लिए दुर्लभ नहीं है, फिर भी वह रत्न है, नर पत्थर है। स्त्री में कुछ नैसर्गिक गुण हैं। उसमें रूप है, माधुर्य है, कोमलतम भावनाएं हैं,
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