बगुला के पंख १६५ उस कथन से जहां नारीत्व को पत्नीत्व से पृथक् किया गया है और पत्नी के सब शील-गुणों के ऊपर सब योग्यताओं के ऊपर है पति के सम्पत्ति की उत्तरा- धिकारी को उत्पन्न करने की योग्यता । हकीकत यह है कि यह पति की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी होना चाहिए शत-प्रतिशत पति का ही पुत्र । पति की सम्पत्ति यदि किसी ऐसे पुत्र को चली जाए जिसमें एक प्रतिशत भी सन्देह हो कि यह. दूसरे पुरुष के वीर्य से उत्पन्न हुआ हो सकता है तो उत्तराधिकार और दायभाग का समूचा ही हिंदू कानून, जिसकी बहुत सावधानी से व्याख्या धर्मशास्त्रों में की गई है, गड़बड़ में पड़ जाए । स्वोपार्जित सम्पत्ति पुरुष की सर्वोपरि वस्तु है । पुरुष जीते-जी उसे स्वेच्छा से भोग करने का अधिकार रखता है । उसे वेश्या को दे सकता है । शराबखोरी में, जुए में बर्बाद कर सकता है परन्तु मरने के बाद वह केवल उसीके वीर्य से उत्पन्न पुत्र को ही मिलनी चाहिए । यही हिन्दू उत्तराधिकार- कानून है, यही हिन्दू धर्मशास्त्रों की मीमांसा है। पत्नी को यदि बाहर के संसार की हवा लग जाए तो किसी परपुरुष से उसका सम्पर्क हो जाने का भय है । इसलिए पत्नी पर बहुत-बहुत सामाजिक बंधन हैं। वह कोरी पति की पतिव्रता पत्नी ही नहीं है। परिवार में किसीकी भाभी, देवरानी, जिठानी, चाची, ताई आदि भी है । ये सारे बंधन उसे कसकर पति के प्रति सतीत्व से बांधे हुए हैं। इन बंधनों के द्वारा उसे यत्किचित् सांस लेने की छूट दी गई है कि पुरुष के नाते इन नातेदारों से एक मर्यादा में हिलमिल सकती है। परन्तु ये सामाजिक बंधन जैसे यथेष्ट नहीं हैं, इसलिए उसपर आध्यात्मिक, धार्मिक और पातिव्रतधर्म का बंधन है जो जन्म-जन्मान्तर तक उसे स्वर्ग में ले जाने की क्षमता रखता है । उसका यह पातिव्रत धर्म केवल पति के जीवित रहने तक ही सीमित नहीं है, पति के मर जाने पर भी कायम है जब तक कि वह स्वयं न मर जाए। पति के मर जाने पर भी उसे मृत पति की पतिव्रता विधवा रहना चाहिए। यह उसका सबसे श्लाघनीय' पत्नीधर्म है। एक बात और, यह पुत्र नाम का पदार्थ, जिसका माता नैसर्गिक रूप से अपना आत्मज, अपने अंग से उत्पन्न समझकर, अपनी संतान समझकर, अत्यंत त्यागपूर्वक स्नेह और ममता से लालन- पालन करती है, वह माता का पुत्र नहीं है, पिता का पुत्र है। उसका स्वामी पिता है, माता नहीं। माता केवल उसको उत्पन्न करनेवाली माध्यम है। इसके
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