बगला के पंख २०५ 'कहता हूं कि मेरे सामने ज़िद न किया कर।' 'पर मैं उस मुर्दे को घर में न आने दूंगी। अच्छा तमाशा है ! दुनिया भर के मुर्दे मेरे ही घर में चिता जलाएंगे।' 'बड़ी ज़बान चलाती है कैंची-सी, कहीं नाक काटकर न फेंक दूं !' 'हां, हां, क्यों नहीं, ऐसे ही शूरवीर हो ! औरत की नाक ज़रूर काटो। सेवा करती हूं, घर-गिरस्ती उठाती हूं, खाना बनाती हूं, झाड़ -बर्तन करती हूं, इतनी गुलामी करती हूं, यह मेरा कसूर तो है ही। नाक काटने से क्या होगा, गला काटकर झगड़ा खत्म करो।' 'मैं उसे ज़बान दे पाया हूं। लाऊंगा ज़रूर। सुख-दुःख में आदमी ही आदमी के काम आता है । फिर बड़ा आदमी है, एक अहसान के दस बदले चुकाएगा। यह भी तो सोचो।' 'सोच लिया। उसे तुम यहां नहीं ला सकते।' 'लाऊं तो तू क्या करेगी ?' 'मायके चली जाऊंगी।' 'सो दस बार चली जा।' 'तो पहले मुझे मायके भेज दो। तब लाना दुनिया भर के उठाईगीरों को।' 'ज़बान संभालकर बोल।' बहुत विवाद हुअा, कड़वा, मीठा, खट्टा, चरपरा, नर्म, गर्म । अन्त में रोते- रोते गोमती ने कहा, 'तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं, उसे मेरे घर मत लायो।' परन्तु औरत का विरोध निष्फल रहा । दूसरे ही दिन जुगनू का बिस्तर घर के बड़े कमरे में लग गया। पति-पत्नी को रसोईघर में सोने को छोड़ दूसरा चारा न रहा। गोमती ने जुगनू के लाने का विरोध तो इतना तीव्र किया था, परन्तु जुगनू के घर में आने पर उसकी सेवा तन-मन से की। वह उसके माथे और पैर के तलुओं पर घी की मालिश करती, बालों में तेल डालती, मल-मूत्र के बर्तन साफ करती, तुरन्त चाय बनाकर देती, यत्न से दवा पिलाती। राधेमोहन दस बजे स्कूल चला जाता, तब से अपराह्न तक दोनों ही आदमी अकेले घर में रहते । दो-चार दिन जुगनू गुमसुम पड़ा रहा। औषध, पथ्य-पानी जब उसे गोमती देती, चुपचाप ले लेता । बहुधा वह चुपचाप पड़ा छत को ताकता रहता। कभी-कदाच -
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