बगुला के पंख २४३ वह आत्मघात कर ले । पर उसका विवेक उसके साथ था। और ज्यों-ज्यों जीवन उसे निराशा की ओर धकेल रहा था, वह विवेक का पल्ला और कसकर पकड़ती जाती थी। इस बार कोई डेढ़ महीने बाद जुगनू मसूरी आया था। इतने दिन में आने पर भी यहां का वातावरण उसे उदास-उदास-सा लगा । पद्मा ने कहा, 'इस बार तो तुमने बड़ी इन्तज़ारी कराई । मेरे खतों का भी जवाब नहीं दिया।' जुगनू ने जूता खोलने का हुक्म नौकर को दिया। फिर सोफे पर पीठ सटा- कर उसने एक सिगरेट जलाई और फिर कहा, 'मुझे बहुत काम रहते हैं पद्मा, और तुम यहां निठल्ली बैठी खत लिखती रहती हो । तुम्हारे सब खतों का जवाब देने की फुर्सत कहां है ? फिर कोई खास बात भी तो नहीं।' 'लेकिन तुम्हारा खत नहीं मिलता है तो मैं परेशान हो जाती हूं।' 'अोह, क्या तुम समझती हो मैं भी शोभाराम की तरह मर जाऊंगा?' पद्मा का मुंह फक हो गया। उसने सोचा भी न था कि जुगनू ऐसा भोंडा जवाब देगा। उसने मुंह फेरकर नौकर से चाय लाने को कहा । जुगनू इस बीच इत्मी- नान से सोफे पर.पैर फैलाए पड़ा सिगरेट फूंकता रहा । पद्मा ने कुछ बातचीत करने की बहुत चेष्टा की पर उसके मुंह से बात ही न निकली। नौकर चाय ले आया । पद्मा ने प्याला तैयार करके जुगनू की ओर बढ़ा दिया। चाय की ओर एक सरसरी नज़र करके जुगनू ने कहा, 'अपने लिए भी तो बनायो । तुम तो बहुत गंभीर हो रही हो । मैं समझता हूं, चाय पीना तो कोई गम्भीर बात नहीं है।' कितने अफसोस की बात है कि पद्मा इस समय हंसती हुई इस जुगनू के बच्चे का मनोरंजन नहीं कर रही, जिसका उसकी समझ में उसे अधिकार है । पद्मा को कोई जवाब नहीं सूझा । उसने कहा, 'दिल्ली में तो इस वक्त काफी गर्मी होगी।' 'मोह बहुत, लेकिन तुम तो यहां बैठी मजे में ठण्डी हवा खा रही हो ।'
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