७० बगुला के पंख जुगनू ने प्याला मुंह से लगाया । नवाब ने कहा, 'हां, तो मैं अर्ज़ कर रहा था। इस बाज़ार के रंग-ढंग ही निराले हैं। अव्वल तो यह कि सारे सौदे आम तौर पर रात की काली चादर के साए में ही होते हैं, दूसरे गुड़-तेल की तरह भाव-ताव यहां नहीं होता । बस, बेभाव की चपत खानी पड़ती है।' नवाब ने अपने प्याले को मुंह लगाया । जुगनू जवाब नहीं दे सका, चुपचाप चाय की चुस्की लेता रहा । एक चुस्की लेकर नवाब ने कहा, 'अब फरमाइए, क्या इरादा 'मैं कुछ ज्यादा खर्च नहीं कर सकता और इस वक्त तो मैं सिर्फ योंही चला आया था । महज़ मुलाकात के लिए।' 'तो फिलहाल आप कितना खर्च कर सकते हैं ?' 'अब इस वक्त तो मैं खाली जेब ही जल्दी में निकल आया हूं। हकीकत यह है कि इरादा कुछ इधर आने का नहीं था, बस योंही चला आया।' 'अक्सर ऐसा होता है जनाबेमन, और शरीफों को ज़लील होकर लौटना पड़ता है। रंडी तो पैसे की यार है । आपका शायद इस कूचे में आने का नया ही शौक है।' 'हां, बस उस दिन मैं पहली ही बार आया था।' 'वह भी उन सेठ साहब के साथ और उन्हींके पैसे से आप तफरीह भी कर गए थे।' 'आपको इन बातों से क्या मतलब ! आप कहिए, क्या खर्च करना होगा?' 'लीजिए, आप तो वही गुड़-तेल का सौदा करने लगे। आप क्या काम करते हैं बन्दा-परवर ?' 'मैं कांग्रेस का ज्वाइण्ट सेक्रेटरी और म्यूनिसिपल कमिश्नर हूं।' 'तो हुजूर जैसे इज़्ज़तदार को इस वक्त पान के लिए सौ रुपए तो खर्चने ही होंगे । बीबी से बेतकल्लुफी की यह आपकी पहली ही मुलाकात है। आइए, ऊपर तशरीफ ले चलिए।' 'लेकिन, इस वक्त तो मैं महज़ योंही मुलाकात के लिए आया हूं।' 'जी हां जनाब, मैं समझ गया आपका मतलब ।' 'लेकिन, इसके लिए मैं इतनी रकम नहीं खर्च कर सकता।' 'तो कितनी कर सकते हैं ?'
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