पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/७८

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बगुला के पंख 'दोस्त, कभी शिकार खेला है ?' 'नहीं।' 'मछली बंसी में फांसी है ?' 'हां।' 'कांटे में फंसकर कितनी छटपटाती लेकिन बाद में सब खत्म । अब चखो दिल भर के ।' 'मेरा तो कलेजा कांप रहा है । मुंह दिखाने की हिम्मत नहीं होती।' 'कभी किसी औरत की सोहबत भी की है ?' 'की है एक अंग्रेज़ औरत की । मैं उसका नौकर था।' 'खैर, ताम अभी मासूम हो। इस वक्त तुम्हें एक दोस्त की सख्त ज़रूरत थी। कहो हो।' 'थी तो। 'और दोस्त मिल गया नवाब, लामो हाथ दो ।' दोनों दोस्तों ने हाथ मिलाए । नवाब ने दो और सिगरेट निकालीं । जुगनू ने कहा, 'अब मैं क्या करूं ?' 'घर जाओ और सब काम, बातचीत इस तरह करो कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं है । और गौर से उसके तेवर देखो। फिर मौका पाकर उससे माफी मांगो। देखो, क्या कहती है।' 'कहीं अपने खाविन्द से न जड़ दी हो ?' 'ऐसा होता तो वह भाग न जाती । शेरनी की तरह तुमपर टूट पड़ती और खड़े-खड़े निकालकर दम लेती ।' रात हो गई थी। ठण्ड बढ़ रही थी। नवाब उठ खड़ा हुआ । उसने कहा, 'अब चला जाए, ज़रा अपना धन्धा भी देखू । बाकी और मों का इलाज धीरे- धीरे होगा। घबराना मत दोस्त ।' नवाब ने जुगनू के कन्धे पर हाथ धरकर कहा। दोनों दोस्त चल दिए।