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बाण भट्ट की आत्म-कथा

६१ बाण भट्ट की आत्मकथा बोलीं-'तू ब्राह्मण है ? ‘मेरा जन्म ब्राह्मण-वंश में ही हुअा है, मातः ! वैदिक क्रिया का अभ्यास है ? बहुत थोड़ा ।' “इस साधना-गृह में तूने क्या किया है ? मैं ठीक समझ नहीं सका कि भैरवी मुझ से क्या जानना चाहती हैं । कोई वैदिक क्रिया मैंने यह नहीं की है ; पर प्रांगण-गृह में एक गीली मिट्टी की वेदी अब भी है, मुझे उसकी सफ़ाई तो देनी ही होगी। फिर प्रशंगवश भट्टिनी की बात भी चल सकती है। इस समय तक वाममार्गी साधकों के सम्बन्ध में मेरे मन में श्रद्धा का भाव नहीं था । विशेषकर इन भैरवियों के सम्बन्ध में मैंने ऐसी बातें सुन रखी थीं, जिनसे उनके विषय में श्रद्धा नहीं बढ़ सकती । इसीलिए मैंने अपने को दबाया। बोला-'इस गृह में मैं बहुत थोड़ी देर ही रहा हूँ, देवि ! यहाँ मैंने कोई वैदिक या अवैदिक अनुष्ठान नहीं किया । भैरवी भी मेरे मुख को देखकर समझ गई कि मैं कुछ छिपा रहा हूँ । बोलीं-“ठीक-ठीक बता, नहीं तो अमंगल होगा।' इस बार मैं इरा। इन भैरवियों से मंगल चाहे न हो, अमंगल अवश्य होता है। मेरा ऐसा विश्वास था। हाथ जोड़ कर बोला-

  • अज्ञ जन के ऊपर दया होनी चाहिए, मातः ! भैरवी ने स्मित हास्य

किया । यह हँसी नारीजनंचित बिल्कुल नहीं थी। उसमें किसी प्रकार के शील, विनय, लज्जा या माधुर्य को एकदम अभाव था । वह सूखी नहीं थी, रहस्यपूर्ण थी। उल्का के क्षणभंगुर प्रकाश की भाँति वह हँसी मेरे मन में श्रीशंका को दीप्त कर गई । मैंने फिर भीत-भीत भाव से कहा-अपराध क्षमा हो, मातः ।। | भैरवी ने कहा---‘इधर आश्रो, और फिर ज़रा ज़ोर से पुकार कर कहा-'आर्य, यह देखो कौन है ?