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बाण भट्ट की आत्म-कथा

१ ३६ बाण भट्ट की अत्म-कथा काटते हो । कविता छोड़ो, भट्टिनी की मर्मवेदना गम्भीर है। सेवक उनके पहले भी थे; पर वे उनकी रक्षा न कर सके । देवपुत्र की अप्र- मेय वाहिनी तब भी थी और अब भी है; पर भट्टिनी को वह नहीं बचा सकी। तुम अकेले क्या कर लोगे ? सोच-समझ कर प्रतिज्ञा करो ।।। निपुणिका ने एक बार फिर मेरे अभिमान को धक्का मारा। मैं इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। किसी दुःखी मनुष्य को आश्वा- सन देते समय मनुष्य कुछ बढ़ा कर बोलता ही है। मैं भी शायद मर्यादा अतिक्रम कर गया था; पर निपुरिया का को इस प्रकार अपघात नहीं पहुँचाना चाहिए था । मैं क्षण-भर के लिए ग्लान हो गया। मैं अपनी ही दृष्टि में कुछ गिर गया। सायंकालीन शिरीध-पत्र के समान मेरी अाँखें अपने-आप झपक गई, धक्का खाए हुए शम्बूक ( घोंघे ) की भाँति मेरा मुख अपने-आप में ही सिकुड़ कर मानो छिप गया । पर यह अवस्था अधिक देर तक नहीं रही । मेरे हित अभिमान ने मुझे उद्धत बना दिया | मैं कुछ उत्तेजित होकर कहना ही चाहता था कि भट्टिनी बीच ही में बोल उठीं। मेरा ग्लान मुख देख कर उन्हें मेरे ऊपर दया आई होगी। उन्होंने निपुणिका को मृदु भाव से डाँटते हुए कहा--- ‘छिः निउनिया, तू क्यों ऐसा कह रही है ? भट्ट पर मेरा पूर्ण विश्वास है । कवित्व की शक्ति तू नहीं जानती । भट्ट कवि हैं । वे स्वयं नहीं जानते कि वे क्या हैं, तो क्या हमें भी भूल जाना चाहिए कि वे कितने महान् हैं ? सेवक मेरे पहले भी थे, पर ऐसा देवो म अभिभावक मुझे पहले नहीं मिला था | तू शायद प्रतिज्ञा के सफल होने को बड़ी चीज़ समझती है। ना बहन, प्रतिज्ञा करना ही बड़ी चीज है । और देखो भट्ट, महावराह की ही मुझे आशा है । महावराह ने ही तुम्हें मेरे पास भेजा है। महावराह ही चाहेंगे, तो वे मेरे पिता से भी मुझे मिला देंगे । उनकी ही इच्छा प्रधान है, हम-तुम तो यन्त्र-मात्र हैं। वे जो बाहेगे, वही होगा उदासी और प्रसन्नता, हँसी और कलाई, सब