पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/३७

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अबुलफजल-वध ३७ + यह व्यक्ति एक लाल रंग का कश्मीरी दुशाला कमर मे सपेटे, अपनी तलवार की मूठ को दृढता से मुट्ठी में पकड़े मानो कोई भारी बात सोच रहा था, और मन ही मन उसकी संभावना और औचित्य पर विचार कर रहा था। इसका नाम था मिरजा गौर। तीसरा व्यक्ति एक पचीस-छब्बीस वर्ष का बिलकुल नवयुवक, सुन्दर नवयुवक था। उसकी स्वच्छ बडी-बडी आखें उसके मन की स्वच्छता की द्योतक थी। प्रशस्त माथा सच्चरित्रता प्रकट कर रहा था। उसकी चौडी छाती और अस्थिर होकर बैठने का ढग प्रमाणित कर रहा था कि जिस गुरुतर कार्य की चर्चा हो रही है, उसपर विचार-परामर्श करने मे देर करने की अपेक्षा कुछ झटपट कर डालना ही उत्तम है । उसका हाथ अपनी तलवार पर था, और लगभग आधी तलवार नगी खिची हुई थी। उसका सुन्दर मुह क्रोध से तमतमा रहा था, और बड़े-बड़े श्वासों से उसकी छाती उठ-बैठ रही थी। यह राजा साहब का विश्वस्त शरीर-रक्षक मुकुट था। राजा वीरसिंहजी कुछ देर स्वस्थ होकर बोले-देखो मिरज़ा, सब बातो की ऊंच-नीच ठीक-ठीक सोच लो । रामशाह ने विश्वासघात तो किया है, पर मेरे बड़े भाई है। "महाराज, राजाओं का भाई कोई नहीं है, यह तलवार है। वह भी तभी तक, जब तक हाथ मे रहे । आप स्वय सोच देखिए, और उपाय क्या है ?" मुकुट ने बीच ही में उतावली से कहा--अपराध क्षमा हो महाराज, मुझे आज्ञा दीजिए, मैं रामशाह महाराज का अभी सिर काट लाऊंगा। ऐसा विश्वास- घात भाई के साथ ! धिक्कार !! "ठहरो मुकुट, सब बातों पर धीरज से विचार कर लो, क्रोध करने को बहुत समय है । देखो, उन्होने परसों पाच हजार सेना लेकर दुर्ग में प्रवेश किया था।" "जी हां, और कसम खाकर कहा था कि दो दिन को दुर्ग खाली कर दो, मैं तुम्हारा भाई हूं। विश्वास करो, हम समझाकर शाही सेना वापस कर देगे । दुर्ग भी दो दिन मे तुम्हे दे देगे । पर उसी दिन दस हजार शाही सेना और दुर्ग मे बुला ली, और आपपर रात्रि को सोते समय छापा मारा। महाराज मैं कभी क्षमा न करूंगा।" महाराज वीरसिंह हंस दिए। उन्होने कहा, "अच्छी बात है, मत करना, पर