पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रबुद्ध होगा, तब वह छिन्न-भिन्न हो जाएगी ?" "मैं मूर्ख स्त्री और क्या सोचूगी !" "नही गोपा, आत्मप्रतारणा की आवश्यकता नही; पर इस बात को तो सोचो। मानव-आत्मा न जाने कब से उसी प्रकार से सो रही है जैसे इस समय ससार । और वह उसी प्रकार अन्धकार मे व्याप्त है जैसे इस समयपृथ्वी । यह निद्रा और अन्धकार कुछ समय में दूर हो जाएगा, उषा का उदय होगा, जगत् सुन्दर हो जाएगा, प्रकृति भाति-भाति के रंग का श्रृंगार करेगी,आलोक से आकाश और भू- लोक शोभायमान होगा, आह ! कैसी सुन्दर बात है, परन्तु मानव-हृदय का अन्ध- कार और सुषुप्ति तब भी दूर न होगी। यह अक्षय अन्धकार यह चिर मोह-निद्रा मनुष्य पर शाप है। मनुष्य-जाति के इस दुर्भाग्य पर तुम्हे करुणा नही आती ?" "और इस अनन्त मानव-समुदाय में अकेले आर्यपुत्र जागरित है ?" "प्रिये ! व्यग्य क्यों करती हो?" "अच्छा,आर्यपुत्र! इस अन्धकार में जागरित होकर किस सौभाग्य की आशा करते हैं ? इस अन्धकार मे तो जागरित पुरुष की अपेक्षा सुख से सोए पुरुष ही अधिक भाग्यशाली है।" कुमार ने उत्तेजित होकर गोपा का हाथ पकड़ लिया। कहा-किन्तु, यदि उनका कभी प्रभात न हो तो? उस निद्रा का कभी अवसान न हो तो? गोपा विचलित हुई, निरुत्तर हुई। वह पति के निकट बैठकर कुछ सोचने . लगी। सिद्धार्थ ने कहा-प्रिये ! यदि मैं अपने प्रकाश की रेखा से इस अन्धकार को छिन्न-भिन्न कर सकू ? जागरित होकर मानव-समाज सुन्दर आलोक देखे तो, गोपा! क्या हमारा जीवन धन्य न होगा? "अवश्य !" गोपा ने दृढ़ता से कुमार का हाथ पकड़कर कहा । "तब इसके लिए हृदय विदीर्ण करना पड़ेगा।" "विदीर्ण ?" सिद्धार्थ कुछ न बोले । दोनो महाप्राण आन्दोलित हो रहे थे, "हृदय विदीर्ण करना होगा ?".."गोपा का माथा घूमने लगा। वह जोर से कुमार का आलिंगन करके रोने लगी। वह बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर कुछ कह न सकती थी; वह बहुत दिन से एक आशका को मन से दूर करने की चेष्टा कर रही थी, पर कर 1