पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/५३

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प्रबुद्ध कथन सत्य हो सकता है। गोपा कुमार की ओर देखती रही; उसके होठ कांपकर रह गए। कुमार बोले-कुछ आगे चलने पर एक और हृदयद्रावक दृश्य देखा । एक पुरुष को लोग उठाकर ले जा रहे थे। मैंने उन्हे रोककर पूछा : यह क्या है ? उन्होने कहा : यह मर गया है। मैंने उसे देखा, वह न हिल सकता था, न बोल सकता था, उसमे प्राण नही था। वे उसे भस्म करने को ले जा रहे थे । एक ने कहा : अन्त में सभीको ऐसा होना पड़ेगा। राजकुमार हठात् उठ खड़े हुए। उन्होने शून्यदृष्टि से आकाश की ओर देखा। उनके हृदय का मानो कोई ज़ोर से मन्थन कर रहा था। उन्होंने कातर कण्ठ से गुनगुनाकर कहा-वह कैसी भयानक दशा है ! राजा और रक यहा विवश है ! क्या इस दुःख से छूटने का कोई उपाय ही नही है ? फिर तो ये सुख, राजप्रासाद, धन और अधिकार विडम्बना-मात्र है ? जब ये चिरस्थायी ही नहीं, जब उस अवश्यम्भावी अवस्था के प्रतिकार मे ये समर्थ ही नहीं, तब ?-उन्होने जोर से पुकारकर कहा-गोपा प्रिये ! तब ? गोपा कुमार की मुख-मुद्रा और भाव-भगी से डर गई। उसने त्रस्त स्वर में कहा-आर्यपुत्र, क्या सोच रहे है ? "प्रिये ! कोई गूढ वस्तु कही छिपी है !" "इस राज-सम्पदा से, अधिकार-सत्ता से भी अधिक ?" "हां।" "इस यौवन, सौन्दर्य और आनन्द से भी अधिक ?" "हां।" "आपकी इस चिरकिङ्करी से भी अधिक ?" "ओह, गोपा प्रिये, ठहरो ! वह गूढ वस्तु हमें प्राप्त करनी चाहिए।" "और वह है कहा?" "मैं उसे ढूढूगा, वह मनुष्य-मात्र के दु.ख को दूर करने की तालिका होनी।" उनके होठ फडकने लगे और नेत्र उन्मीलित हो गए। गोपा एक बार कम्पित हुई। उसने कुमार का हाथ पकडकर उठाया और कहा-आर्यपुत्र ! नगर-निरीक्षण तो आपने किया, अब मेरी सारिका का निरी- क्षण भी कीजिए, देखिए, यह आपकी तरह मेरा नाम पुकारना सीख गई है। आज