सोना ने भय-कातर दृष्टि से पति की ओर देखते हुए
कहा-जरा सा तो काम था। पड़ोसी-धर्म के नाते, मैंने
सोचा कि कर ही देना चाहिये। नहीं तो इन्कार क्यों नहीं
कर नकदी थी ?
"इसी प्रकार ज़रा-ज़रा सी बातों से बढ़ी-बड़ी बातें भी हो जाया करती हैं । निभाया कर पड़ोसी-धर्म; मेरी ईज्जत का ख्याल मत करना,” कहने हुए विश्वमोहन बाहर चले गए । साईकिल उठाई और स्टेशन चल दिए।
आहत-अपमान से सोना तड़प उठी। वह कटे हुए
वृक्ष की भाँति खाट पर गिर पड़ी और खुब रोई । रो लेने
के बाद उसका जी कुछ हल्का हुअा। उसे अपने गांव का
स्वच्छन्द जीवन याद अाते लगा । देहाती जीवन की सुखद स्मृतियाँ एक-एक नुकवि की सुन्दर कल्पना की भाँति उसके दिमाग में आने लगीं । उसके बाद याद छाया किस प्रकार जाड़े के दिनों में अलाव के पास न जाने कितनी रात तक , बूढ़े, जवान, बुनियाँ और बच्चे सब एक साथ बैठकर आग तापते हुए पहलियाँ बुझाते और किन्ने कहानियाँ कहा करते थे। किसी के साथ किसी प्रकार का बन्धन न था । नदी पर व भर की बहू-बेटियाँ मे स्नान करने को जाती थी; शेर नि सत्र के साथ गाती