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पृष्ठ:बिरहवारीश माधवानलकामकंदला.djvu/११६

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विरहवारीशमाधवानलक.मकंदलाचरित्रभाषा । स्कार करि जोर उच्च आसन पुनिदीन्हों। भोजन रच्यो सुवेश कह्यो निज नारिन पाहीं । उनि लैभीतर भवन गयो माधो द्विज काहीं॥ छंदसंयुत । दिज माधो को सनमानि के। पगधोयो निजपा निते ॥ षट ब्यंजन जेवनार के। परसे कंचन थार में ॥ चौ०भोजनकरद्विजवीरा लीन्हों।नमस्कार चूरामणिकीन्हों। दे अशीश माधौ द्विजचल्यो। मदनमस्त जाके हियमिल्यो । छं० तोम ० । द्विजपूछयोशुक्रकाहिं। टिकिये कहांपुरमाहि ॥ तब योंकयो परवीन । नृपबाम चाह नवीन ॥ दो० नृपवासके अग्रसी बागअशोकनवीन । निकटतड़ागमहेशमठ तहाँअयनदिजकीन । चौ० बटवौलट माधवानिहारयो । मृगछाला तिहिठांपर डारयो। मदनदीप दिन के हियजाग्यो। कहनवारताशुकलाग्यो। दो विधि विनऊं करजोरिक मोहिंदेहिबैईठ । कैमृगनयनी बगल में कै मृगछालापीठ ॥ चौ.निज जियकी माधोनल कहै । मेरे जिय चिन्तायहरहै ।। हौं छलकर आयो प्रियपाहीं। जियैकंदला कैधौनाहीं।। ऋतुबसंत अंत तक बाई । सुधिन मीत बनिताकी पाई। मेरे चित्त प्रतीतहै येही । बिछुरै भित्र न जियै सनेही । दो० बोधाकबि नर देहधरि प्रीति करै जनिकोय। जो कदापि विछुरै प्रिया मरै कि रोगीहोय ॥ चौ० जगमें जियतनसुन्यो वियोगी। जियैकदापि होयतो रोगी। करै योग उनमादी होई। याते प्रीति करो जनि कोई॥ में किमि खबर मित्रकी पाऊं। असको जिहिधावन दौराऊं। कहै प्रवीन विदाकरमेरी । मैंसुधिल्याऊं बालाकेरी ॥ माधो कहै तोहिं पठवाऊं। मोकिहिमिलैपुनि विरहबिहाऊं ॥ दूरदेशते गगन उड़ाहीं। मगमें कहींबाजधरिखाही दो० तें मेरेहितलगि मरै मैं तेरोहितपाय ।