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पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/३२

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दूसरे ने कहा, "अच्छा काका न खेलो; परदेस गये थे वहाँ के कुछ हाल सुनाओ।" बिल्लेसुर ने कहा, "बिना अपने मरे कोई सरग नहीं देखता। बड़े होकर परदेस जाओगे तब मालूम कर लोगे कि कैसा है।" एक तीसरे ने कहा, "यहाँ हमलोग हैं, भेड़िये का डर नहीं; वह ऊँचे हार में लगता है।" बिल्लेसुर ने कहा, "इधर भी आता है, लेकिन आदमी का भेस बदल कर।"

यह कहकर बिल्लेसुर उठे। बकरियाँ एक एक पत्ती टूँग चुकी थीं। झपाटे से बढ़कर लग्गा उठाया और हाँककर दूसरी तरफ़ ले चले। पड़ती ज़मीन से ऊँचे, बाग़ की तरफ़ चलते हुए कुछ रियाँ की लच्छियाँ छाँटीं। दीनानाथ गाँव जाते हुए मिले। लोभी निगाह से बकरियों को देखते हुए पूछा, "कितने की ख़रीदीं?" बिल्लेसुर ने निगाह ताड़ते हुए कहा, अधियाँ की मिली हैं।" बिल्लेसर के जगे भाग से दीना की चोटी खड़ी हो गई––ऐसा तअज्जुब हुआ। पूछा––"तीनों?" बिल्लेसुर ने अपनी खास मुस्कराहट के साथ जवाब दिया, "नहीं तो क्या––एक?" दीना ने अरथाकर पूछा, "यानी बकरी तुम्हारी, दूध तुम्हारा; मर जाय, उसकी; बच्चे, आधे आधे?" बिल्लेसुर ने कहा, "हाँ।" बिल्लेसुर के असम्भावित लाभ के बोझ से जैसे दीना की कमर टेढ़ी हो गई। दबा हुआ बोला, "हाँ, गुसैयाँ जिसको दे।" मन में ईर्ष्या हुई। बिल्लेसुर अकेले मज़ा लेंगे? दीना नहीं अगर बकरियों को पेट में न डाला। बिल्लेसुर ने देखा, दीना के माथे पर बल पड़े हुए थे,आँखों में इरादा ज़ाहिर था। बिल्लेसुर को ज़िन्दगी के रास्ते रोज़ ऐसी ठोकर लगी है, कभी बचे हैं, कभी चूके हैं। अब बहुत सँभले रहते हैं। हमेशा निगाह सामने रहती है। वहाँ से बढ़ते हुए गूलड़