पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/३५

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गाँव के कुल पेड़ बिल्लेसुर ने डूँड़े कर दिये––उनकी बकरियाँ बिकवा दी जानी चाहिए। ज़मींदार ने, अच्छा, कहकर उनका उत्साह बढ़ाकर टाल दिया क्योंकि बिल्लेसुर की बकरियों पर उनकी निगाह पहले पड़ चुकी थी और वे सरकारी पेड़ों की छँटाई की एक रक़म बिल्लेसुर से तै करके लेने लगे थे। गाँववाले दिल का गुबार बिल्लेसुर को बकरिहा कहकर निकालने लगे। जवाब में बिल्लेसुर बकरी के बच्चों के वही नाम रखने लगे जो गाँववालों के नाम थे।


(९)

नहाकर, रोटी पका-खाकर, शाम के लिए रखकर, बिल्लेसुर बकरियों को लेकर निकले। कन्धे में वही लग्गा पड़ा हुआ। जामुन पक रही थी। एक डाल में लग्गा लगाकर हिलाया। लग्गे के एक तरफ़ हँसिया, दूसरी तरफ़ लगुसी बँधी थी। फरेंदे गिराकर बिनकर अँगोछे में ले लिये और ख़ाते हुए गलियारे से चले। आगे महावीर जी वाला मन्दिर मिला। चढ़ गये और चबूतरे के ऊपर से मुँह की गुठली नीचे फेंककर महावीर जी के पैर छुर और रोज़ की तरह कहा, मेरी बकरियों की रखवाली किये रहना। तुलसीदास जी या सीताजी की जैसी अन्तर्दृष्टि न थी; होती, तो देखते, मूर्ति मुस्कराई। जल्दी-जल्दी पैर छूकर और कहकर मन्दिर के चबूतरे से नीचे उतरे। बकरियों को लेकर गलियारे से होते हुए बाग़ की ओर चले। दुपहर हो रही थी। पानी का गहरा दौंगरा गिर चुका था। ज़मीन गीली हो गई थी। ताल-तलैयाँ, गड़ही-गढ़े बहुत-कुछ भर चुके थे। कपास, धान, अगमन ज्वार-बाजरे, अरहर, सनई, सन, लोबिया, ककड़ी-खीरे, मक्की, उर्द आदि बोने के लोभी किसान तेज़ी से हल चला रहे थे। किसानी के तन्त्र के