पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५४
 

करते रहे, मन में यह निश्चय लिए हुए कि काम पूरा हो जायगा। फिर पुजापा समेटकर भीतर के एक ताक़ पर रखकर बासी रोटियाँ निकालीं। भोजन करके हाथ-मुँह धोया, कपड़े पहनने लगे। मोज़े के नीचे तक उतारकर धोती पहनी, फिर कुर्ता पहनकर चारपाई पर बैठे, साफ़ा बाँधने लगे। बाँधकर एक दफ़े फिर उसी तरह दरपन देखा और तरह-तरह की मुद्राएँ बनाते रहे। फिर जेब में वह छोटा-सा दरपन और गले में मैला अँगोछा और धुस्सा डालकर लाठी उठाई। जूते पहले से तेलवाये रक्खे थे, पहन लिये। दरवाज़े निकलकर मकान में ताला लगाया, और दोनों नथनों में कौन चल रहा है, दबाकर देखकर, उसी जगह दायाँ पैर तीन दफ़े दे दे मारा, और दूधवाली हण्डी उठाकर निगाह नीची किये गम्भीरता से चले।

थोड़ी दूर पर भरा घड़ा मिला। बिल्लेसुर ख़ुश हो गये। घड़ेवाली सगुन की सोचकर मुस्कराई, कहा, "मेरी मिठाई कब ले आते हो?" काम निकलने के बादवाले आशय से सिर हिलाकर आश्वासन देते हुए बिल्लेसुर आगे बढ़े।

नाला मिला। किनारे रियें और बबूल के पेड़। ख़ुश्की पकड़े चले जा रहे थे। बनियों के ताल के किनारे से गुजरे। देखकर कुछ बगले इस किनारे से उस किनारे उड़ गये। बिल्लेसुर बढ़ते गये। शमशेरगंज का बैरहना मिला। एक जगह कुछ खजूर और ताड़ के पेड़ दिखे। सामने खेत, हरियाली लहराती हुई। ओस पर सूरज की किरनें पड़ रही थीं। आँखों पर तरह-तरह का रङ्ग चढ़ उतर रहा था। दिल में गुदगुदी पैदा हो रही थी। पैर तेज़ उठ रहे थे। मालूम भी न हुआ कि हाथ में दूध से भरी भारी हण्डी है।

आम और महुए की कतारें कच्ची सड़क के किनारे पड़ीं। जाड़े