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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१५७

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११४
बिहारी-रत्नाकर


११४ बिहारी-रत्नाकर लीला=नीले रंग का गोदना ॥ दून = दुनी ॥ ( अवतरण )-सखी नायक से नायिका के चिबुक के गोदने की शोभा कहती है ( अर्थ )-हे ललन ! सुंदर श्याम गोदने पर [ उसके उज्ज्वल, गुलावी ] चिनुक [ के प्रभाव ] से दूनी शोभा बढ़ गई है। [ ऐसा प्रतीत होता है ] मानो मधु ( मकरंद ) से छका हुआ ( मस्त ) भ्रमर गुलाब के फूल पर पड़ा है ॥ सबै सुहाएई लगै बमैं सुहाएँ ठाम ।। गोरें मुंह बेदी लैसँ अरुन, पीत, सित, स्याम ॥ २७१ ॥ ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है ( अर्थ )-सुहाए स्थान पर बसने से सभी सुहाए ही लगते हैं , [ जैसे ] गोरे ( सुंदर ) मुख पर अरुण, पीत, श्वेत [ तथा ] श्याम [ सय रंगों की ] बँदियाँ लसती हैं। ( सुशोभित होती हैं ) ॥ भए घटाऊ नेहु तजि, बादि बकति बेकाज । अब, अलि देत उराहन अँति उपजति उर लाज ॥ २७२ ॥ बटाऊ=पाथिक ॥ बादि=वृथा, विना कुछ प्रभाव डाले ॥ बेकाज = विना किसी लाभ की आशा के ॥ ( अवतरण )-नायक कुछ दिन से घर मैं बहुत कम देर ठहरता है, अन्य स्त्रियाँ के यहाँ विशेष रहता है। सखी उसको उलाहना देती है । तब नायिका नायक को सुना कर सखी से कहती है ( अर्थ ) हे अलि, [ अब तो ये ] स्नेह को छोड़ कर बटाऊ हो गए हैं ( जैसे पथिक कहाँ थोड़ी देर विश्राम के लिए ठहरता है, वैसे ही ये मेरे यहाँ रहत हैं ) । [ तु तो इनसे ] वृथा [ तथा ] वेकाज ववाद करती है [ इतने दिनों तक बकने से क्या लाभ हुआ, जो तू अब फिर बक रही है ] । अव [ ता इनको ] उलाहना देते [ भी ] उर में अत्यंत लज्जा उपजती है [ क्योंकि जिस पर कहने सुनने का कुछ प्रभाव न पड़े, उससे बकना निर्लज्जता ही है ] । --: - मानु करत बरजति न ह, उलट दिवावति सह । करी रिसह जाहिगी सहज हँस हाँ भौंह ॥ २७३ ॥ ( अवतरण ) नायिका नायक से मान करना चाहती है, पर सखी चाहती है कि वह ऐसा न करे । अतः वह सीधे सीधे मना न कर के एसी बात कहती है, जिससे नायिका स्वयं समझ जाय और अपनी बाई से प्रसन्न हो कर मान न करे १. सुहाइयें ( ५ ) । २. लसे ( २ ), लगति ( ३, ५ ) । ३. सबै ( २, ५), सबै ( ३ ) । ४. लसांत ( ३, ५ ) । ५. बकत ( २, ५ ) । ६. उर उपजात अति ला न ( ३, ५) । ७. जाइगी ( ३, ५)।