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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर उसके स्नेह में, सब सुधियुधि भूला हुआ है । अपनी यही व्यवस्था वह दूती अथवा नायिका की किसी सखी से कहता है (अर्थ)-श्याम चुनरी से तारों के सहित आकाश की [ तथा ] मुख से शशि की अनुहारि ( सहश) [ उस] निशा सी नारी को देख कर स्नेह नींद की भाँति दबा लेता है ( सुधिबुधि भुला देता है ) ॥ कहत सबै, बँदी दियँ आँकु दसगुनी होतु । तिय-लिलार बँदी दियँ' अगिनितु बढ़तु उदोतु ॥ ३२७ ॥ ऑकु ( अंक ) = गिनती लिखने के निमित्त सांकेतिक अक्षर ॥ उदोतु ( उद्योत ) =(१) प्रकाश, शोभा । (२) अंक का अभिप्राय अर्थात् मूल्य ॥ ( अवतरण )-बँदी देने से नायिका के मुख की शोभा अत्यंत बढ़ गई है। इसी के विषय में नायक स्वगत कहता है ( अर्थ )—सभी [ लोग ] कहते हैं, बँदी देने से अंक [ का मुख्य ] दसगुना हो जाता है।[पर यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष ही है कि इस] स्त्री के ललाट पर बँदी देने से उद्योत ( १. कांति । २. अभिप्राय } अगणित [गुना ] बढ़ जाता है । तर झरसी, ऊपर गरी कज्जल-जल छिरकाइ । पिय पाती बिन हीं लिखी बाँची बिरह-बलाइ ॥ ३२८॥ गरी = गली हुई ॥ ( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका ने नायक के पास जो चिट्ठी भेजी है, उसमें वह अपमा एक विकलता के कारण पूर्णतया नहीं लिख सकी है । चिट्ठी लिखते समय उसके हाथ के साप से अराज़ नीचे की ओर झुलस गया है, और कज्जल-मिश्रित अश्रुओं के गिरने से ऊपर की ओर गल गया है। इन बात से नायक ने विना लिखी हुई विरह-व्यथा का अनुमान कर लिया है। सखी-वचन सखी से (अर्थ)-नीचे | विरह-ताप से ] झुलसी हुई, [ तथा ] ऊपर कज्जल के जल से छिरकी जा कर गली हुई पत्रिका में विना लिखी हुई ही विरह की विपत्ति प्रियतम ने बाँय ली ( अनुमानित कर ली )॥ । इस दोहे का पूर्वार्ध ‘पाती' का विशेषण मात्र है। ‘बिन हीं लिखी', यह वाक्यांश 'विरबखाह' का विशेषण है। 'पिय' शब्द 'बाँची' का तृतीयांत कर्ता एवं 'विरह-बलाइ’ उसका प्रथमांत | सोरठा विरह सुकाई देह, नेहु कियौ अति डेहडहौ। जैसे बरसैं मेह जरै जवास, जौ जमै ॥ ३२९ ॥ १. छगत (१) । २. लिनँ (२) ।